SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 346
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ख - ६ [ ४५ पर इस मन्दिर से लगे चबूतरे पर दीपदान करते हैं। तीसरा मन्दिर शंखध्वज नाम का है जिसमें चार वेदियां हैं, मूलनायक नेमिनाथ हैं, अन्य भी कई कलापूर्ण मध्यकालीन मूत्तियाँ हैं । बाईं ओर के गर्भालय में पार्श्वनाथ, श्रेयांसनाथ (गेंडा लांछन ) और चन्द्रप्रभु की प्रतिमाएँ हैं, जिनमें से मध्यवर्ती प्रतिमा पर सं० १३५७ ( ई० १३०० ) का प्रतिष्ठा लेख अंकित है । दाईं ओर के गर्भगृह में एक प्रतिमा १२५१ ई० की है। यहाँ पंचबालयति, चतुर्तीर्थी आदि शिला फलक भी हैं, यक्ष-यक्षि मूर्तियां भी हैं। इनमें से कई एक हतकान्त ( हस्तिकान्तपुर) के भट्टारकीय मन्दिर से लाकर विराजमान की गई हैं । स्वयं हतकान्त में, कहा जाता है कि, ५१ प्रतिष्ठाओं के वहां हुए होने का पता चलता है । यह भी कहा जाता कि फिरोज तुगलक ने हतकान्त पर आक्रमण करके यहाँ के मन्दिरों का भी ध्वंस किया था जो मन्दिर विद्यमान है वह पक्का दुमन्जिला और विशाल है, बाद में भट्टारकों द्वारा बनवाया हुआ है । इस क्षेत्र में डाकुओं का आतंक अधिक है, अत: वहाँ अब कोई जैन नहीं रहता और मन्दिर अरक्षित पड़ा है । उपरोक्त शंखध्वज मन्दिर के बाईं ओर मैदान में एक परकोटे के भीतर कई प्राचीन टोंकें, छतरियां आदि बनी हुई हैं । यह स्थान पंचमढ़ी कहलाता है । इसमें ११वीं - १२वीं शती के लगभग की दो भ० महावीर की और एक नमिनाथ की प्रतिमाएं हैं। छतरियों में यम आदि कई मुनियों के चरण चिन्ह बने हैं, तथा धन्य नामक अन्तकृत safe की अत्यन्त प्राचीन टोंक है । एक मन्दिर पर श्वेताम्बरों का भी अधिकार है, उसमें भ० नेमिनाथ की प्रतिमा विराजमान है । शौरिपुर में एक १६ फुट चौड़ा अति प्राचीन कुंआ है, जिसका जल बड़ा स्वादिष्ट एवं स्वास्थ्यवर्धक है । दिगम्बर तीर्थ क्षेत्र कमेटी ने एक धर्मशाला तथा एक कुँआ भी बनवाया है । निकटवर्ती बटेश्वर मुख्यतया शैव तीर्थ है, किन्तु वहाँ भी शौरिपुर के भट्टारकों द्वारा बनवाया हुआ एक विशाल जैन मन्दिर और धर्मशाला है । इस मन्दिर में परिमाल चन्देल के प्रसिद्ध सेनानी आल्हा या ऊदल के पुत्र जल्हण द्वारा बैसाख वदि ७ सं० १२२४ ( ई० ११७६) में प्रतिष्ठापित अजितनाथ की मनोज्ञ मूर्ति है, जो महोबा से लाई गई बताई जाती है और लोक में मनियादेव के नाम से प्रसिद्ध है । इस के आसपास २२धातु प्रतिमाएं विराजमान हैं । इस मन्दिर में एक अति कलापूर्ण शांतिनाथ शिलापट है जिस पर सं० ११२५ ( ई० १०६८ ) की तिथि अंकित है । अन्य भी अनेक पाषाण एवं धातु की मध्यकालीन कलापूर्ण जिन प्रतिमाएँ हैं । ऐसी किवदंती है कि किसी मुसलमान सर्दार की सेना ने शौरिपुर के प्राचीन मन्दिरों को ध्वस्त कर दिया था । शौरिपुरि की स्थापना का श्रेय महाराज शूर या शूरसेन को है। अति प्राचीन क्षत्रिय राजा हरि से हरिवंश की उत्पत्ति हुई थी, उसी के वंश में २०वें तीर्थंकर मुनिसुव्रत हुए, और आगे चलकर वसु नामका प्रसिद्ध राजा हुआ । वसु की सन्तति में यदुवंश का संस्थापक यदु हुआ, जिसके पुत्र नरपति के शूर और सुवीर नाम के दो पुत्र हुए। शूर के नाम पर ही इस पूरे महाजनपद का नाम शूरसेन पड़ा - मथुरा और शौरिपुर इसके मुख्य नगर थे । शूर ने मथुरा में तो अपने अनुज सुवीर को स्थापित किया और स्वयं महाजनपद के एक भाग में, जो कुशार्थ, कुशार्त या कुशद्य विषय कहलाता था, शौरिपुरि या शौर्यपुर नगर की स्थापना की। इसी नगर में शूर के उपरान्त उसके पुत्र अन्धकवृष्णि ने राज्य किया । अन्धक वृष्णि के दशपुत्र थे जिनमें सबसे बड़े समुद्रविजय थे और सबसे छोटे वसुदेव थे । शौरिपुर में ही महाराज समुद्रविजय की महादेवी शिवादेवी की कुक्षि से २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ का जन्म हुआ था । उनके वीर, साहसी एवं कामदेवोपम सुन्दर चाचा वसुदेव के पुत्र बलराम और त्रिखंड चक्रवर्ती नारायण कृष्ण थे, तथा बुआ कुन्ती के पुत्र हस्तिनापुर के युधिष्ठिरादि पांडव और कर्ण थे। मथुरा में सुवीर के पौत्र और भोजकवृष्णि के पुत्र उग्रसेन की पुत्री देवकी कृष्ण की जननी थीं, और पुत्र कंस मथुरा का अत्याचारी शासक हुआ । राजगृह नरेश जरासन्ध के निरन्तर आक्रमणों से तस्त होकर यादवगण शौरिपुरि का परित्याग करके पश्चिमी समुद्रतटवर्ती द्वारिका नगरी में जा बसे थे । यह घटना नेमिनाथ की बाल्यावस्था में हो घटित हुई प्रतीत होती है । फलस्वरूप शौरिपुर की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy