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________________ एवं ब्रह्मण धर्माचार्यों का समान रूप से आदर करते थे। उन्होंने श्रावस्ती में विभिन्न धर्मों की तत्त्वचर्चा के लिए एक विशाल सभाभवन भी बनवाया था। वाराणसी के राजा जितशत्रु, राजपुत्री मुण्डिका, कपिलवस्तु के शाक्य बप्प (गौतम बुद्ध के चाचा), मथुरा नरेश उदितोदय एवं अवन्तिपत्र तथा उनका राज्य सेठ, पांचाल नरेश जय, हस्तिना पुर के नृप शिवराज और नगरसेठ पोत्तलि, पलाशपुर के राजा विजयसेन और राजकुमार ऐमत्त, इत्यादि महावीर भक्त थे। महावीर के दस प्रसिद्ध गृहस्थ उपासकों में पलाशपुर का कोट्याधीश कुंभकार शब्दालपुत्र, जो वर्ण से शूद्र था, व उसकी पत्नी अग्निमित्रा, वाराणसी का चौबीस कोटि मुद्राओं का धनी सेठ चुलिमीपिता और उसकी पनि श्यामा, काशि का ही श्रेष्ठि सुरादेव व उसकी पत्नी धन्या, आलंभिका का चुल्लशतक व पत्नी बहुला, काम्पिल्य का गृहपति कुण्डकोलिक व उसकी भार्या पुष्पा, और श्रावस्ती के सेठ सालिहिपिता एवं नन्दिनीपिता अपनी-अपनी पत्नियों अश्विनी एवं फाल्गुणी सहित, परिगणित हैं। श्रावस्ती का धनाधीश मिगार या अनाथपिण्डक भी, जिसकी बुद्धभक्त पुत्रवधु विशाखा ने प्रसिद्ध जेतवन विहार बनवाया था, महावीर का अनुयायी था। अन्तिम केवलि जम्बूस्वामि ने वीर निर्वाण संवत् ६२ (ई. पू. ४६५) में मथुरा नगर के चौरासी नामक स्थान पर निर्वाण लाभ किया था। मथुरा में ही उनके द्वारा मुनिधर्म में दीक्षित दस्यराज विद्युच्चर और उसके पांच सौ साथियों ने तपस्या करके सद्गति प्राप्त की थी, जिनके स्मारक रूप से ५०१ स्तूप वहां निर्मित हुए थे, ऐसी अनुश्रुति है। महावीर निर्वाणोपरान्त-प्राचीन युग ईसापूर्व ५वीं शती के मध्य के लगभग से ई. पू. २री शती के प्रायः प्रारम्भ तक उत्तर प्रदेश पर क्रमशः मगध के नन्द वंशी नरेशों और मौर्य सम्राटों का आधिपत्य रहा। इन दोनों वंशों के अधिकांश राजे जनधर्मानुयायी थे अथवा जैनधर्म के प्रति अत्यन्त सहिष्णु थे। अतएव प्रदेश में जैनधर्म फलता फूलता रहा। अशोक के शासनकाल में बौद्धधर्म का प्रभाव एवं प्रसार बहुत बढ़ा अनुमान किया जाता है, किन्तु जैनधर्म को विशेष क्षति नहीं पहुंची। स्वयं अशोक के शिलालेखों से स्पष्ट है कि वह निर्ग्रन्थों (जैनों) का आदर करता था और जीवहिंसा निषेध एवं मांसाहार त्याग के उनके सिद्धान्तों का स्वयं भी पालन करता था तथा अपनी प्रजा को भी उनका पालन करने की प्रेरणा देता था। कुछ विद्वानों का तो यह मत है कि अशोक कम से कम अपने जीवन के पूर्वार्ध में तो जैन ही रहा था। अशोक के उत्तराधिकारी सम्प्रति की गणना तो आदर्श जैन नरेशों में है। उसने अनेक स्थानों में अनगिनत जैन मंदिर बनवाये कहे जाते हैं । नन्द-मौर्य युग में जैन इतिहास की विशेष महत्वपूर्ण घटना द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल के कारण जैन मनियों के बहभाग का दक्षिण पक्ष की ओर विहार कर जाना था। मौर्यवंश के उपरान्त मगध में क्रमशः शुंगों और कण्वों का शासन रहा, जिन्होंने ब्राह्मण धर्म पुनरुत्थान के लिए अपूर्ण उद्योग किया, और परिणामस्वरूप जैन, बौद्धादि श्रमण धर्मों को हानि भी पहुंची। किन्तु उत्तर प्रदेश के बहभाग पर उनका अधिकार नाम मात्र का ही रहा प्रतीत होता है। कौशाम्बी, अहिच्छन्न में स्थानीय राज्यवंश, जो बहधा 'मित्रनंश' कहलाते हैं, स्थापित हुए । इनमें परस्पर सम्बन्ध भी थे और इन प्रायः सभी राज्यों के मित्रगंशी राजे जैनधर्म के प्रति आदर भाव रखते थे । मथुरा के राजा पूतिमुख की एक रानी बौद्ध थी और दूसरी जैन, जिन्हें अपना-अपना नेता बनाकर बौद्धों और जैनों के बीच मथुरा के प्राचीन देवनिर्मित स्तप के अधिकार को लेकर झगड़ा चला। उसका निर्णय अन्ततः जैनों के पक्ष में हआ। अहिच्छत्रा के महाराज आषाढसेन ने अपने भानजे कौशाम्बी नरेश बृहस्पतिमिन के राज्य में स्थित तीर्थकर पद्मप्रभ की तप-ज्ञान भूमि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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