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________________ १४ ] ख - ५ कोई व्यक्ति, जो शाकाहारी है, आवश्यक नहीं है कि वह श्रेष्ठ व्यक्ति हो । वह निर्दयी भी हो सकता है। और यहां तक कि पशुओं के प्रति होने वाली निर्ममताओं और पीड़ाओं से उदासीन होता हुआ हृदयहीन भी हो सकता है, परन्तु शाकाहारी सिद्धान्त अपने व्यापक पक्षों में जीवन की श्रेष्ठ पद्धति है। पशुओं को मृत्यु और खतरे का पूर्वाभास हो जाता है। कसाईपर में ले जाए जाने हेतु उन्हें बहुत ही जंगलीपन से पीटा जाता है और लहू की दुर्गन्ध में वे आतंकित और भयभीत हो जाते हैं । मठों में निरीह प्राणी मठोंठ दिया जाता है अथवा होश की अवस्था में उसका गला काट दिया जाता है तब रक्त प्रवाह होता है, खाल शूलती है, अन्तड़ियां बाहर निकाली जाती हैं, और चीर-फाड़ की जाती है। यह सारी प्रक्रिया तब की जाती है जब कि पशु गर्म रहता है । कोई भी दया और भावना का व्यक्ति इस प्रकार की निर्मम हत्या और कष्टदायक चीखों को शायद ही सहन करे । धार्मिक पक्ष - हम पवित्र आलेखों में पाते हैं — ठहरिये, मैंने आपको हर प्रकार का भोजन देने वाला बीज दिया है और प्रत्येक वृक्ष जिसमें फल हैं आपके लिए मांस की तरह ही होगा। जोरास्टर और बुद्ध का अनुयायी भोजन के रूप में मांस शायद ही ले सके। इसी तरह एक कर्मयोगी या प्रबुद्ध आत्मा कभी मांस को नहीं लेगी। एक प्रबुद्ध और सभ्य व्यक्ति का शाकाहारी सिद्धान्त को जीवन के धर्म के रूप में स्वीकार लेना परम कर्तव्य है जिससे आचारिक और धार्मिक विश्वास प्राप्त किए जा सकते हैं। इसलिए शाकाहारी सिद्धान्त मात्र धार्मिक क्रिया नहीं है, मात्र एक आदत नहीं है, वरन् जीवन की एक विधि है । आर्थिक पक्ष क्या संसार आबादी से भर नहीं जायगा ? विचारिए, मनुष्य अपना व्यवसाय बढ़ाने, स्वार्थी उद्देश्य की पूर्ति करने के लिए 'पशु मांस' का पोषण करता है । किसी को यह तथ्य नहीं भुलाना चाहिए कि मांस के लिए विशेष रूप से पोषक पशु को अपने भोजन के लिए मनुष्य की अपेक्षा अधिक जमीन की आवश्यकता पड़ती है । थोड़े से पशु बढ़ाने में जमीन का बहुत बड़ा हिस्सा काम आता है और जमीन खाली हो जाती है । जितनी एकड़ जमीन पशुओं को बढ़ाने के लिए चरागाह के काम में ली जाती है, उस मांस से बहुत थोड़े से व्यक्तियों को ही खिलाया जा सकता है, यदि धान, दाना, फल, सब्जियां उगाई जाँय उससे अनेक परिवारों को ही तृप्त नहीं किया जायगा, वरन उसी समय, उच्च गुणात्मकता और पोषण का भोजन भी पैदा किया जा सकता है। नैतिक पक्ष नैतिक क्षेत्र में आने पर हमें लगता है कि मांसाहार धूम्रपान, मद्यपान और अन्य बाधक आदतों की ओर ले जाता है। व्यक्ति जो भोजन लेता है, उसका एक निश्चित प्रभाव होता है— केवल शारीरिक दृष्टि से ही नहीं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी राजसी भोजन व्यक्ति को लोभी, व्याकुल और विनाशकारी बनाता है जबकि सात्विक भोजन रचनात्मकता और ध्यानावस्था देता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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