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________________ 'स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चाद् स्याद्वा न वा वधः ॥' जो प्रमादी है, असावधान है, दूसरों को मारने सताने का भाव रखता है अथवा उनकी ओर से विमुख है, पहले तो वह अपने से अपना ही घात करता है । अन्य प्राणियों का घात तो उसके बाद होता है । वह भी हो या न हो। अतः भगवान महावीर केवल परघात की दृष्टि से अहिंसा पर जोर नहीं देते किन्तु आत्मघात की दृष्टि से अहिंसा पर जोर देते हैं। वे मारकों के द्वारा मारे जाने वालों को नहीं बचाना चाहते । मारने वालों में के भाव से बचाना चाहते हैं । मारने वालों के मन से मारने का भाव दूर होने पर उनके द्वारा मारे जाने वाले तो स्वयं ही बच जायेंगे । इस तरह महावीर भगवान की अहिंसा आध्यात्मिक है, कोरी भौतिक नहीं है। वे आत्मा के प्रत्येक विकार को हिंसा कहते हैं क्योंकि विकार आत्मा के शुद्ध स्वरूप का घातक है । इसी से जिनागम में कहा है रागावीणमणुप्पा अहिंसगत्तेत्ति मासिदं समये । तेसि चेदुप्पत्ती हिंसेति निणेहि णिद्दिदिठा ॥ अर्थात रागादि विकारों के उत्पन्न न होने को आगम में अहिंसा कहा है। और उनकी उत्पत्ति को भगवान महावीर ने हिंसा कहा कहा है। अत: आत्मा का समस्त विकारों से रहित होना ही पूर्ण अहिंसा है और वह मोक्ष रूप होने से पूर्ण अहिंसा ही मोक्ष का कारण है । जप, तप, संयम, ध्यान आदि सब उसी के पोषक है है क्योंकि उनकी सहायता से ही आत्मा निर्विकार बनता है। इसी अहिंसा की देन स्याद्वाद है। स्याद्वाद दार्शनिक क्षेत्र की हिंसा को दूर करता है। दार्शनिक क्षेत्र में एक दर्शन वस्तु को नित्य मानता है तो दूसरा अनित्य मानता है। एक अद्वैत का आग्रही है तो दूसरा द्वैत का आग्रही है । एक वस्तु को सामान्य रूप मानता है तो दूसरा विशेष रूप मानता है, और इस तरह दार्शनिक क्षेत्र में विवाद चलता है। अनेकान्तवादी जैन दर्शन कहता है कि वस्तु किसी दृष्टि से नित्य है तो किसी दृष्टि से अनित्य भी है। किसी दृष्टि से एक है तो किसी दृष्टि से अनेक है। किसी दृष्टि से सामान्य रूप है तो किसी दृष्टि से विशेष रूप है । इस तरह वस्तु परस्पर में विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मों का एक समन्वयात्मक रूप है। आचार्य हेमचन्द्र ने भगवान महावीर का स्तवन करते हुए कहा है आवीपमाव्योम समस्वभावं स्याद्वाद मुद्रानति मेदि वस्तु । तमित्य मेवकमनित्यमन्यत् इति त्वदाज्ञा द्विषतां प्रत्नापाः ।। दीपक से लेकर आकाश पर्यन्त सब वस्तुएं समान स्वभाव वाली हैं। इस तरह वस्तु स्याद्वाद की मुद्रा का उल्लंघन नहीं करती । इस लिये दीपक क्षणिक ही है और आकाश नित्य ही है यह आपके मत से विरोध रखने वालों का प्रलाप है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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