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________________ मूलाधार में वर्णित आचार-नियम : श्वेताम्बर आगम साहित्य के परिप्रेक्ष्य में आसाढे मासे दुपया पोसे मासे चउप्पया।। - उत्तराध्ययन, 26/13 वड्दए हायए वावी मासेणं चउरं अंगुलं ।। - उत्तराध्ययन, 26/14 इस अधिकार की 5/148, 149, एवं 150 गाथाएँ उत्तराध्ययन के क्रमशः 30/7, 8, एवं 9 से तुलनीय हैं। मात्रभाषा में थोड़ा सा अन्तर परिलक्षित होता है। कुछ और भी उदाहरण द्रष्टव्य हैं -- मूलाचार की 5/155 गाथा उत्तराध्ययन की गाथा 30/26 से मूलाचार की 5/159 गाथा उत्तराध्ययन की गाथा 30/27 से मूलाचार की 5/160 गाथा उत्तराध्ययन की गाथा 30/28 से मूलाचार की 5/162-64 गाथा उत्तराध्ययन की गाथा 30/29-31 से मूलाचार की 5/176 एवं 85 गाथा उत्तराध्ययन की गाथा 30/32 से मूलाचार की 5/197 गाथा उत्तराध्ययन की गाथा 30/35 से इन गाथाओं में भाषा एवं भाव दोनों दृष्टियों से समानता है। छठा अधिकार पिण्डशुद्धिअधिकार है। इसमें विशेषरूप से आहार-शुद्धि का वर्णन है। आहार के प्रकार, आहार की शुद्धता एवं अशुद्धता की जाँच-श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों के समान ही वर्णित है। उदाहरणस्वरूप इसमें भिक्षाचर्या की जो विधि बतायी गई है, उसमें भिक्षा के लिए किन क्रमों से गहों में प्रवेश करना चाहिए इसका उल्लेख है। यह बात उत्तराध्ययन के तप नामक अध्याय में है। सातवाँ षडावश्यक नामक अधिकार है। आश्चर्यजनक रूप से इस अधिकार के प्रारम्भ में ही मूलाचारकर्ता यह रहस्योद्घाटन करता है कि यह अधिकार आवश्यकनियुक्ति को देखकर यथाक्रम संक्षेप (जहाकम समासेण) में लिखा गया है -- आवासयणिज्जुत्ती वोच्छामि जहाकम समासेण। आयरिपरम्पराए जहागदा आणुपुव्वीए।। - मूलाचार, 7/2 उपर्युक्त गाथा के पश्चात् हमें मूलाचार के संग्रह ग्रन्थ होने में सन्देह नहीं करना चाहिए। चयनकर्ता का यह स्पष्टीकरण हमें सारी शंकाओं से मुक्त कर देता है। अधिकार के अन्त में वह पुनः कहता है -- णिज्जुत्ती णिज्जुत्ती एसा कहिदा मए समासेण। अह वित्थार पसंगोऽणियोगदो होदि णादब्बो।। आवासयणिज्जुत्ती एवं कधिदा समासओ विहिणा। जो उवजूंजदि णिच्चं सो सिद्धिं जादि विसुद्धप्या।। - मूलाचार, 7/192-193 आठवाँ अधिकार द्वादशानुप्रेक्षाधिकार है। इस अधिकार में 12 अनुप्रेक्षाओं की चर्चा है। इनके स्वरूप के सम्बन्ध में तो दोनों परम्पराओं में समानता है। जहाँ तक मेरी जानकारी है, मरणविभक्ति नामक प्राचीन श्वेताम्बर ग्रन्थ में अनुप्रेक्षाओं का क्रमबद्ध सुव्यवस्थित वर्णन है। इनमें भाव की दृष्टि से मुझे कोई विशेष भेद परिलक्षित नहीं होता। उत्तराध्ययन आदि में भी संसार की दुःखमयता, क्षणिकता, अशरणता आदि का उल्लेख है। 65 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012052
Book TitleShwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages176
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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