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________________ मुलाचार में वर्णित आचार-नियम : श्वेताम्बर आगम साहित्य के परिप्रेक्ष्य में मूलाचार एगं पंडियमरणं छिदइ, जाईसयाणि बहुगाणि। तं मरणं मरिदब्वं, जेण मदं सुम्मदं होदि।। - मूलाचार, 3/117 एक्कं पंडियमरणं विंदा, जाईसयाणि बहुयाणि। तं मरणं मरियव्वं जेण मओ मुक्कओ होइ।। - मरणविभक्ति प्रकीर्णक, गाथा, 994, पृ. 121 उपर्युक्त द्वितीय एवं तृतीय अधिकारों से उघृत कुछ थोड़े से उदाहरणों से स्पष्ट है कि किसी एक ने किसी दूसरे से ग्रहण किया है। सन्दर्भ यह स्पष्ट करते हैं कि मूलाचारकर्ता ने ही इन श्वेताम्बर प्रकीर्णकों से उपयोगी गाथाओं को लेकर अपने ग्रन्थ का निर्माण किया है। प्रथम तो यह है कि इन प्रकीर्णकों की भाषा मूलाचार से प्राचीन है। इसका स्पष्टीकरण हम तृतीय शताब्दी ईसा पूर्व के अशोक एवं द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व के खारवेल के लेखों से कर सकते हैं। दोनों में "ण" की जगह "न" का ही अधिक प्रचलन है। मूलाचारकर्ता "ण" का ही अधिक प्रयोग करता है। दूसरे मूलाचार में स्पष्टतः इन प्रकीर्णकों का नामोल्लेख हुआ है। जिससे इनकी प्राचीनता स्वयं सिद्ध हो जाती है। चतुर्थ अधिकार समाचार अधिकार है। इसमें मुख्यतः समाचारी का उल्लेख है। मूलाचार में निम्न 10 समाचारियों का उल्लेख है जिनकी समता उत्तराध्ययन से की जा सकती है-- उत्तराध्ययनसूत्र इच्छाकार आवश्यकी मिथ्याकार नषेधिकी तथाकार आपृच्छना आवश्यकी प्रतिपृच्छला नषेधिकी छन्दना आपृच्छना इच्छाकार प्रतिपृच्छना मिथ्याकार छन्दना तथाकार निमन्त्रणा अभ्युत्थान उपसम्पदा उपसम्पदा दोनों परम्पराओं में क्रम के अतिरिक्त इस सम्बन्ध में कोई मूलतः भेद नहीं है। इनका मूल-स्रोत एक ही प्रतीत होता है। इस समाचारी अधिकार में साध्वियों के नियमों एवं कर्तव्यों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इन नियमों से स्पष्ट है कि मुलाचार की परम्परा में साध्वी संघ एक महत्त्वपूर्ण घटक के रूप में विद्यमान था। जैसा कि हमने पूर्व में कहा था कि यापनीय परम्परा भिक्षु की निर्वस्त्रता पर बल देते हुए भी श्वेताम्बर परम्परा के समान स्त्री-मुक्ति की अवधारणा और साध्वियों को एक वस्त्र धारण करने की अनुमति देती थी। मूलाचार भी स्त्री-मुक्ति की अवधारणा का समर्थक है। इसका निम्न श्लोक द्रष्टव्य है-- एवं विधाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जाओ। ते जगपुज्जं कित्ति सुहं च लभ्रूण सिज्झति।। - मूलाचार, 4/196 63 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012052
Book TitleShwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages176
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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