SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियुक्तिसाहित्य : एक परिचय - डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय आगम साहित्य के गुरु गंभीर रहस्यों के उद्घाटन के लिये निर्मित व्याख्या साहित्य में नियुक्तियों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन आगम साहित्य पर सर्वप्रथम प्राकृत भाषा में जो पद्यबद्ध टीकाएँ लिखी गईं वे ही नियुक्तियों के नाम से विश्रुत हैं। नियुक्तियों में मूलग्रन्थ के पद पर व्याख्या न करके, मुख्य रूप से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की गई है। नियुक्तियों की व्याख्या-शैली, निक्षेप-पद्धति की है। निक्षेप पद्धति में किसी एक पद के सम्भावित अनेक अर्थ करने के पश्चात् उनमें से अप्रस्तुत अर्थों का निषेध कर प्रस्तुत अर्थ का ग्रहण किया जाता है। यह पद्धति जैन न्यायशास्त्र में अत्यधिक प्रिय रही है। इस शैली का प्रथम दर्शन हमें अनुयोगद्वार में होता है। नियुक्तिकार भद्रबाहु ने नियुक्ति के लिये यही पद्धति प्रशस्त मानी है। नियुक्ति का प्रयोजन स्पष्ट करते हुये उन्होंने लिखा है -- "एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, कौन सा अर्थ किस प्रसंग के लिये उपयुक्त है, श्रमण महावीर के उपदेश के समय कौन सा अर्थ किस शब्द से सम्बद्ध रहा है, प्रभृति बातों को लक्ष्य में रखकर अर्थ का सम्यक् रूप से निर्णय करना और उस अर्थ का मूलसूत्र के शब्दों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना नियुक्ति का कार्य है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो सूत्र और अर्थ का निश्चित सम्बन्ध बताने वाली व्याख्या नियुक्ति है -- "सूत्रार्थयोः परस्परं निर्योजन सम्बन्धन नियुक्तिः3" अथवा निश्चय से अर्थ का प्रतिपादन करने वाली युक्ति को नियुक्ति कहते हैं। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान शान्टियर ने नियुक्ति की व्याख्या करते हुये लिखा है "नियुक्तियाँ अपने प्रधान भाग के केवल इंडेक्स का कार्य करती हैं--- वे सभी विस्तार युक्त घटनावलियों का संक्षेप में उल्लेख करती हैं। अनुयोगदारसूत्र में नियुक्तियों के तीन प्रकार बताये गये हैं -- 1. निक्षेपनियुक्ति, 2. उपोद्घातनियुक्ति, 3. सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति। ये तीनों भेद विषय की व्याख्या पर आधारित हैं। डॉ. घाटगे ने नियुक्तियों को निम्न तीन भागों में विभक्त किया है -- 1. मूलनियुक्ति अर्थात् जिसमें काल के प्रभाव से कुछ भी मिश्रण न हुआ हो। जैसे "-- आचारांग और सूत्रकृतांग की नियुक्तियाँ। वे नियुक्तियाँ जिनमें मूलभाष्यों का सम्मिश्रण हो गया है, तथापि वे व्यवच्छेद्य हैं। जैसे -- दशवकालिक व आवश्यकनियुक्तियाँ। 3. वे नियुक्तियाँ जो आजकल भाष्य या बृहदभाष्य में समाविष्ट हैं इनके मूल और भाष्य में इतना सम्मिश्रण हो गया है कि उन दोनों को पृथक् करना दुप्कर है। जैसे -- निशीथ आदि की नियुक्तियाँ। यह विभाजन वर्तमान में प्राप्त नियुक्ति साहित्य के आधार पर किया गया है। रचनाकाल -- निर्यक्तियों के काल निर्णय के सम्बन्ध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है, फिर भी इनका रचनाकाल विक्रम संवत् 300 से 600 के मध्य माना जाता है। नियुक्तिकार -- जिस प्रकार महर्षि यास्क ने वैदिक पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करने के लिये निघण्टुभाष्य रूप निरुक्त लिखा, उसी प्रकार जैनागमों के पारिभाषिक शब्दों के व्याख्यार्थ आचार्यभद्रबाहु द्वितीय ने नियुक्तियों की रचना की। ध्यातव्य है कि नियुक्तिकार आचार्यभद्रबाहु, चतुर्दशपूर्वधर, छेदसूत्रकार, भद्रबाहु से पृथक है, 48 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012052
Book TitleShwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages176
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy