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________________ श्रावकाचार का मूल्यात्मक विवेचन मारिपा अतिचार यहाँ यह स्पष्ट कर दिया गया है कि वेश्या आदि अन्य स्त्रियों से काम व्यवहार रखना, अनंगक्रीडा करना, अपने पुत्र-पुत्री को छोड़कर अन्य का विवाह कराना, काम सेवन की तीव्र भावना रखना व्रत भंग का कारण है, अतिचार है। एक आचार्य ने तो यहाँ तक कह दिया है कि अपनी विवाहिता स्त्री से भी अगर वह अल्पवयस्क है तो उससे काम व्यवहार नहीं करना चाहिये। परन्तु जब इन संयमित विचारों को छोड़कर मानव अपना दृष्टिकोण दूसरा बना लेता है तो हत्या, व्यभिचार, बलात्कार जैसी भावनाएँ सहज ही प्रस्फुटित हो जाती है। प्रसंगानुकूल वर्तमान परिप्रेक्ष में इस व्रत के सन्दर्भ में कुछ लिखना अनुचित नहीं होगा। अब्रह्म को बढ़ावा देने के लिए स्वयं स्त्री जाति भी बहुत हद तक जिम्मेवार है। वे सीता, सभद्रा आदि के चरित्रों को भूलकर, कम से कम वस्त्र धारण कर, शरीर का प्रदर्शन करती हैं। फैशन और कृत्रिम प्रसाधन सामग्री ने औरत को नुमाईश की चीज बना दिया है। पुरुष वर्ग भी इसमें बहुत हद तक दोषी होता है क्योंकि इस सब नुमाइशों के पीछे उसका मस्तिष्क व व्यावसायिक बुद्धि कार्य करती है, जिससे वह अपनी संस्कृति को किसी भी रूप में प्रयोग करने में नहीं चकता है। आज व्यक्ति का खान-पान, आचार-विचार, रहन-सहन सब तामसिक और अमर्यादित हो गया है। पिक्चर, अश्लील साहित्य, बेहुदे विज्ञापन से समाज का नैतिक व मानसिक पतन हो रहा है। आज हर गली मोहल्ले में 8-8, 10-10 वर्षों के नौनिहालों के मुँह से प्यार मोहब्बत के अश्लील गाने व भद्दी गालियाँ सुनी जा सकती हैं। आज जो एड्स नामक रोग अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर फैल रहा है वह स्वैच्छिक यौन सम्बन्ध, कामसख की तीव्र अभिलाषा और ब्रह्मचर्य नाश का ही परिणाम है। पाश्चात्य देशों में जो समलैंगिक सम्बन्ध (होमो) की प्रवृत्ति बढ़ रही है वह अनंगकीडा का ही दूसरा नाम है, जिसका हमारे आचार्यों ने हजारों वर्षों पूर्व ही निषेध कर दिया था। इस प्रकार ब्रह्मचर्य अणुव्रत पारिवारिक शान्ति और आपसी विश्वास की भावना को सुदृढ़ करता है। उपासकदशांग में पत्नी के लिए जो धर्मसहायिका, धर्मवैद्या, धर्म-आराधिका आदि विश्लेषण प्राप्त होते हैं, वे सब इस व्रत के सफल पालन के ही परिणाम थे। आज भी हम लोगों में अपनी पत्नी के लिए "धर्मपत्नी" शब्द का प्रयोग किया जाता है, वह ब्रह्मचर्य की विशेषता का ही संकेत है। (5) अपरिग्रह अणुव्रत खान-पान, धन-धान्य, दास-दासी, खेत, वस्तु आदि के उपयोग की मर्यादा निश्चित कर लेना अपरिग्रह अणुव्रत है। गृहस्थावस्था में रहने के कारण व्यक्ति सामाजिक बन्धनों से बंधा होता है, अतः भविष्य की सुरक्षा व दुर्भिक्ष की आशंका से प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ संग्रह करना आवश्यक होता है। इस कारण वह पूर्णपरिग्रही तो नहीं बन सकता है परन्तु उस परिग्रह की एक सीमा जरूर निश्चित कर लेता है। यह सीमा निर्धारण ही व्यक्ति को अपरिग्रही बनाती है। अपरिग्रह जैनधर्म की एक महत्त्वपूर्ण विचारधारा है। जैन दर्शन में कहा गया है कि परिग्रह से वैमनस्यता, वर्गसंघर्ष व विषमता बढ़ती है क्योंकि यह सीधे-सीधे समाज को प्रभावित करता है। जब एक व्यक्ति के पास अधिक धन-सम्पत्ति होती है तब दूसरे के पास उसका अभाव स्वाभाविक है। यह अभाव और आधिक्य ही वर्ग संघर्ष का कारण है। 154 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012052
Book TitleShwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages176
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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