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________________ डॉ. अशोक कुमार सिंह नहीं 19 कर्मबन्ध के कारणों की चर्चा के रूप में सूत्रकृतांग में हमें दो महत्त्वपूर्ण उल्लेख प्राप्त होते हैं। सूत्रकृतांग के प्रारम्भ में तो परिग्रह या आसक्ति को ही हिंसा या दुष्कर्म का एकमात्र कारण माना गया है। आगे चलकर प्रथम अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में यह कहकर कि अन्तःकरण में व्याप्त लोभ, समस्त प्रकार की माया, अहंकार के विविध रूप और क्रोध का परित्याग करके ही जीव कर्मबन्धन से मुक्ति प्राप्त कर सकता है, सूत्रकृतांग में चारों कषायों को भी कर्मबन्धन के कारण के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। बन्धन के कारणों की इस चर्चा में सूत्रकृतांग में प्रकारान्तर से प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान और मैथुन से अविरति को भी कर्मबन्धन का कारण माना है।22 इस प्रकार चाहे स्पष्ट रूप से नहीं परन्तु प्रकारान्तर से उसमें मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय को योग के साथ बन्धन का कारण मान लिया गया है। अतः बन्धन के जिन पाँच कारणों की चर्चा परवर्ती साहित्य में उपलब्ध है उसका मूलबीज सूत्रकृतांग में उपलब्ध है। यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि कषायों की यह चर्चा 'जे कोहं दंस्सि से माणं दस्सि आदि के रूप में आचारांग में आ गयी है। सूत्रकृतांग की विशेषता यह है कि वह इन कारणों से कर्मबन्धन को स्वीकार करता है।23 कर्मसिद्धान्त के सन्दर्भ में सूत्रकृतांग इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि व्यक्ति स्वकृत कर्मों के फल का ही भोक्ता होता है। वह न तो अपने कर्मों का विपाक दूसरों को दे सकता है न दूसरों के कर्मों का विपाक स्वयं प्राप्त कर सकता है। कर्म के द्रव्य और भावपक्ष की इन नामों से चर्चा इसमें नहीं मिलती है किन्तु 'कर्मरज24 और कर्म का त्वचा के रूप में त्याग जैसे उल्लेखों से स्पष्ट रूप से हमें लगता है कि उसमें कर्म के द्रव्य पक्ष की स्वीकृति रही हुई है। पुनः 'प्रमाद कर्म है और 'अप्रमाद अकर्म है यह कहकर- सूत्रकार ने कर्म के भावपक्ष को भी स्पष्टतः स्वीकार कर लिया है। कर्म के पुण्य-पाप, कर्म और अकर्म०, ऐसे तीन पक्षों की चर्चा भी सत्रकतांग में उपलब्ध होती है। जहाँ तक कर्मप्रकृतियों की चर्चा का प्रश्न है सत्रकतांग में मात्र दर्शनावरण का उल्लेख मिलता है। इससे ऐसा लगता है कि सूत्रकृतांग में कर्मप्रकृतियों की चर्चा के मूलबीज धीरे-धीरे प्रकट हो रहे थे। कर्म के ई-पथिक28 और साम्परायिक29 इन दो स्पों की चर्चा का प्रश्न अकर्म और कर्म से जुड़ा हुआ है किन्तु इन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हमें सर्वप्रथम सूत्रकृतांग में मिलता है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में साम्परायिक और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में तेरह क्रियास्थानों की चर्चा के सन्दर्भ में ईर्यापथिक का उल्लेख आया है।29a कर्म की दस अवस्थाओं में से हमें उदय, उदीरणा और कर्मक्षय की चर्चा मिलती है। कर्मनिर्जरा के सम्बन्ध में उल्लेख है कि तप के द्वारा कर्मक्षय सम्भव है और सम्पूर्ण कर्म का क्षय हो जाने पर परम सिद्धि प्राप्त होती है।33 इसप्रकार हम देखते हैं कि सूत्रकृतांग में आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा कर्मसिद्धान्त का क्रमिक विकास हुआ है। ऋषिभाषित की कर्मसम्बन्धी अवधारणायें : कर्मसिद्धान्त के इस क्रमिक विकास की चर्चा में हम यह देखते हैं कि आचारांग और सूत्रकृतांग की अपेक्षा ऋषिभाषित में कर्मसिद्धान्त पर्याप्त रूप से विकसित अवस्था में मिलता है। कर्म, अकर्म4 की चर्चा के साथ-साथ शुभाशुभ कर्म की चर्चा तथा शुभाशुभ कर्मों से अतिक्रमण की चर्चा ऋषिभाषित में ही सर्वप्रथम मिलती है। ऋषिभाषित ही ऐसा ग्रन्थ है जिसमें स्वर्ण और लोह-बेड़ी की उपमा देकर पुण्य-पाप कर्म से अतिक्रमण की चर्चा है। सर्वप्रथम अष्टकर्म ग्रन्थि38 की चर्चा करने वाला भी यही ग्रन्थ है। ऋषिभाषित में कर्म के 5 आदान या कारण39 स्पष्ट रूप से उल्लिखित है। 105 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012052
Book TitleShwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages176
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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