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________________ अनेकान्त, अहिंसा तथा अपरिग्रह की अवधारणाओं का मूल्यांकन : आधुनिक विश्व समस्याओं के सन्दर्भ में बताते हुए "सम्यगाजीव" की चर्चा होती है। व्यक्ति को संयमित ढंग से अपनी आजीविका को उपलब्ध करना चाहिए। अपरिग्रह का आध्यात्मिक महत्त्व के साथ ही सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक महत्त्व भी है। उत्तराध्ययनसूत्र में इसके आध्यात्मिक महत्त्व को बताने के लिए धन-संग्रह की निन्दा की गई है। ___"धन न तो लोक में शरण देता और न ही परलोक में।" दीपक के बुझ जाने पर अन्धकार में देखा हुआ मार्ग भी नहीं दिखाई पड़ता है। उसी तरह पौदगलिक वस्तु के मोह में उचित मार्ग को देखना न देखना के बराबर हो जाता है। धर्म का पालन तो ममता के त्याग से होता है। जब समाज में एक व्यक्ति आवश्यकता से अधिक संचय करने लगता है, तो अन्य लोगों की सुख-सुविधाएँ छिन जाती हैं। कोई खाते-खाते मरता है, तो कोई खाये बिना मरता है। कोई व्यक्ति अपने बेटे-पोते के लिए संग्रह करता जाता है और कोई अपने पेट को भरने में भी असमर्थ रहता है। परिग्रह असमानता को जन्म देता है। इसके कारण ही राजतन्त्र बनता है, जिसमें राजा और प्रजा इन दो वर्गों में समाज बँट जाता है। पूँजीवाद में मालिक और मजदूरों का समाज परिग्रह के कारण ही बनता है। समाज में अनेक प्रकार के दुराचार, अनाचार, अत्यधिक धन-संचयं की वजह से ही होते हैं। अपरिग्रह से समानता आती है, जिससे समाजवाद को बल मिलता है। समाजवाद अपरिग्रह के ही फलस्वरूप जन्म लेता है और विकसित होता है। इसलिए प्राचीनकाल से आज तक चिन्तकों ने अपरिग्रह को अपनाने का उपदेश दिया है। अपरिग्रह का ही एक रूप प्रसिद्ध आधुनिक समाजवादी चिन्तक कार्लमार्क्स की चिन्तन पद्धति में मिलता है। शोषण करने वाले पूँजीपतियों से शोषित मजदूरों को छुटकारा तथा गरीबों को समान अधिकार दिलाने के लिए उन्होंने अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है। पहले अतिरिक्त मूल्य के अधिकारी पूँजीपति हुआ करते थे, किन्तु मार्क्स ने कहा कि अतिरिक्त मूल्य में मजदूरों को भी. समान अधिकार मिलना चाहिए अर्थात् मजदूर भी अतिरिक्त मूल्य के भागीदार हो सकते हैं। इससे पूँजीपतियों द्वारा किए जाने वाले परिग्रह पर नियन्त्रण होता है। इसमें एक बात ध्यान देने की है कि जैनदर्शन द्वारा प्रतिपादित अपरिग्रह सिद्धान्त परिग्रहवृत्ति के त्याग को प्रधानता देता है, जबकि कार्लमार्क्स का सिद्धान्त कानूनी तौर पर संग्रह को रोकना चाहता है। यदि कानूनी ढंग से परिग्रह को रोक दिया जाता है, तो वह समाज के लिए लाभदायक होता है, परन्तु यदि मन से संग्रहवृत्ति को रोकने का प्रयास होता है, तो वह व्यक्ति और समाज दोनों के लिये श्रेयस्कर है। सन्दर्भ-ग्रन्थ 1. चिंतन की मनोभूमि, पृ. 251 2. वही, पृ. 251 3. उत्तराध्यवनसूत्र,414 * रीडर, दर्शन विभाग, काशी विद्यापीठ, वाराणसी-2 100 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012052
Book TitleShwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages176
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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