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________________ डॉ० के० आर० चन्द्र पू० जम्बूविजयजी ने स्वयं अपने संस्करण की भूमिका में लिखा है- "सुगमता के लिए मध्यवर्ती ध के बदले में 'ह' पाठ स्वीकार किया गया है।" वास्तव में 'थ' का 'ध' में परिवर्तन थ='ह' (यथा, तथा के अघोष थ का घोष ध) से प्राचीन है परंतु उन्होंने अर्वाचीन 'ह' को अपनाया है जो 'थ' का 'ध' होकर फिर बाद में 'ह' हुआ है। उन्होंने ऐसे सब पाठ भी नहीं दिये हैं। यदि ऐसे सब पाठ दिये होते तो नया परिमार्जित संस्करण तैयार करने में बहुत सहायता मिलती। . इस अध्ययन के दरम्यान आचारांग के विविध संस्करणों में तथा मूलग्रंथ, उसकी चूर्णी और वत्ति की विविध प्रतियों में उपलब्ध हो रहे विभिन्न पाठों का विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता है :I उपलब्ध हस्तप्रतों के विषय में : १. मूल ग्रंथकी प्रतों में अशुद्ध पाठ भी प्राप्त. २. मूल ग्रंथकी प्रतों में अर्वाचीन रूप भी प्राप्त. ३. प्राचीन प्रतों में अर्वाचीन रूप भी प्राप्त. ४. रूपों की सर्वत्र एक-रूपता अप्राप्त. ५. चूर्णि की विभिन्न प्रतों में अलग-अलग शब्द-रूप प्राप्त. ६. चणि में अशुद्ध रूप भी प्राप्त. ७. चणि में अर्वाचीन रूप भी प्राप्त. ८. शीलांकाचार्य की वृत्ति में भी रूपों की एक-रूपता नहीं. ९. शीलांकाचार्य की वृत्ति में अर्वाचीन रूप भी प्राप्त. II उपलब्ध मुद्रित संस्करणों के विषय में : १, अ-एक ही संस्करण में एक ही शब्द का कभी प्राचीन तो कभी अर्वाचीन रूप स्वीकृत। ब-विविध संस्करणों में अलग-अलग शब्दरूप की प्राप्ति । २. अ-चूर्णि में उपलब्ध प्राचीन रूप अस्वीकृत ।। ब-मात्र चणि का प्राचीन रूप स्वीकृत। ३. अ-प्राचीनतम प्रत में उपलब्ध प्राचीन रूप अस्वीकृत । ब-प्राचीनतम प्रत एवं चूर्णि में उपलब्ध प्राचीन रूप अस्वीकृत । स-प्राचीनतम प्रत एवं चूर्णि में उपलब्ध अर्वाचीन रूप स्वीकृत । द-प्राचीनतम प्रत एवं चणि में उपलब्ध अर्वाचीन रूप अस्वीकृत । ४. अ-अर्वाचीन प्रत में उपलब्ध प्राचीन रूप स्वीकृत । ब-अर्वाचीन प्रत में उपलब्ध प्राचीन रूप अस्वीकृत। स-अर्वाचीन प्रत में उपलब्ध अर्वाचीन रूप स्वीकृत । द-चूणि और अर्वाचीन प्रत में उपलब्ध प्राचीन रूप अस्वीकृत। १. देखिए-आचारांगसुत्तं १९७७ मुनि जम्बूविजय की प्रस्तावना, पृ० ४३-४४. २. देखिए-'आचारांग के प्रथम श्रुत स्कंध में स्वीकृत कुछ पाठों की समीक्षा', विद्या, गूज, युनि, जिल्द, २५, नं० १-२, अगस्त, १९८२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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