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________________ डॉ० के० आर० चन्द्र पुनश्च एक ही ग्रंथ की विभिन्न काल की प्रतों में उपलब्ध पाठों में मध्यवर्ती ध्वनिपरिवर्तन सम्बन्धी कितना अन्तर आ जाता है उसका एक ज्वलन्त उदाहरण हमारे सामने विशेषावश्यकभाष्य का है। इस ग्रंथ के ला० द० संस्करण में यदि मध्यवर्ती 'त' की स्थिति को 'त' श्रुति मानकर इस स्थान पर 'त' का भी लोप माना जाय तो सभी मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप इकतीस प्रतिशत (३१%) ठहरता है। यह लोप आचारांग के शुब्रिग महोदय के संस्करण से बहुत कम है यह मुद्दा ध्यान में लेने योग्य है। विशेषावश्यकभाष्य में लोप की स्थिति का यदि अन्य तरह से विश्लेषण किया जाय तो उसका प्रतिशत बदल जाता है। यदि मध्यवर्ती 'त' को सर्वथा छोड़ दिया जाय तो अन्य व्यंजनों का लोप बारह प्रतिशत (१२%) ठहरता है और यदि मध्यवर्ती 'त' की स्थिति को 'त' श्रुति न मानकर मूल 'त' ही माना जाय तो यह लोप दस प्रतिशत (१०%) ही ठहरता है। इसी ग्रंथ के ला० द० के अलावा जो अन्य संस्करण उपलब्ध हैं उनमें मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप अड़तालीस प्रतिशत (४८%) मिलता है। ला० द० संस्करण में जिस प्रति का उपयोग किया गया है वह दसवीं शताब्दी की है जो मूल ग्रंथ के रचनाकाल से लगभग साढे तीन सौ वर्षों बाद की है जबकि अन्य संस्करणों की प्रतियाँ अनेक शताब्दियों के बाद की हैं। इसी उदाहरण से स्पष्ट है कि एक ही ग्रंथ की विभिन्न कालीन प्रतियों में ध्वनि-सम्बन्धी परिवर्तन कितना बढ़ गया है। इस दृष्टि से यदि आचारांग के प्रथम श्रुत-स्कंध की रचना या संकलन का काल कम से कम आगमों की प्रथम वाचना का समय यानि ई० स० पूर्व तीसरी शताब्दी से पहले का भी माना जाय तो उसके और उसकी प्राचीनतम प्रत के बीच में (जो बारहवीं शताब्दी की है) पन्द्रह सौ वर्षों का अन्तर पड़ता है। समय के इतने लम्बे अन्तर के कारण मूल पाठों के बदल जाने की बहुत अधिक संभावना रहती इस तथ्य के विषय में किसी प्रकार की शंका करने का अवकाश ही नहीं रहता जैसा कि वि० आ० भाष्य के उदाहरणों से स्पष्ट है।। विभिन्न आगम-सूत्र-ग्रंथों एवं अन्य रचनाओं में प्राकृत भाषा के स्वरूप को देखते हुए इतना तो स्पष्ट कहा जा सकता है कि पू० पुण्यविजयजी द्वारा संशोधित और पू० जम्बूविजयजी द्वारा सम्पादित आचारांग का संस्करण प्राचीनता (मूल भाषा) के अधिक निकट है जबकि शूब्रिग महोदय के संस्करण में भाषा की अर्वाचीनता है। यह सब कुछ होते हए भी पू० जम्बविजयजी के संस्करण में भी अनेक अर्वाचीन पाठ स्वीकृत किये गये हैं जो उपलब्ध प्रतों के आधार पर स्वतः स्पष्ट हैं। पू० सागरानन्दजी (आगमोदय समिति) के संस्करण में पाठान्तर १. ग्रन्थ की प्रथम सौ गाथाओं ( ला० द० संस्करण ) के जो सभी पाठान्तर दिये गये हैं उनके अनुसार इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया है। देखिए मेरा लेख, पृ० ६५ से ७४, प्राचीन आगम ग्रन्थों का संपादन, लाला हरजस राय स्मृति ग्रन्थ, १९८७, पा० वि० शोध संस्थान, वाराणसी-५. २. पू० मुनि श्री का जितना आभार माना जाय उतना ही कम है क्योंकि अब तक के उपलब्ध सभी संस्करणों में यही एक ऐसा संस्करण है जिसमें अनेक प्रतियों का उपयोग किया गया है और अत्यंत परिश्रम के साथ इस संस्करण का संपादन किया गया है। उनके ही इस परिश्रम के कारण प्रस्तुत अध्ययन के लिए इस प्रकार की दृष्टि मिल सकी और यह संशोधनात्मक निबंध तैयार किया जा सका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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