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________________ Presidential Address Section : RAJASTHANI EVAN HINDI JAINA SĀHITYA श्री भंवरलाल जी नाहटा परमतारक तीर्थङ्कर परमात्मा सर्वसाधन सम्पन्न राजा और चक्रवर्ती पर्यन्त सर्वोच्च सामर्थ्यवान होते हुए भी समस्त विश्व के कल्याण हेतु सर्वस्व त्याग कर अकिंचन जङ्गल एवं पहाड़ों में तपस्या करते हुए लोकोपकार करते रहते हैं। चरम तीर्थङ्कर महावीर स्वामी सर्वज्ञ होकर जनता को उपदेश उनकी मातृभाषा में देते थे। यही कारण है कि वे लाखों मनुष्यों का उद्धार कर सके थे। स्वर्ग के देवी-देवता और पश-पक्षी तक उनके उपदेशों से प्रभावित होकर अपना भविष्य उन्नत कर सके थे । लोकभाषा में वे सरलता पूर्वक लोगों के गले उतर जाय वैसी ही युक्ति का प्रयोग करते थे। उस समय की भाषा अर्धमागधी थी जिसमें अन्य प्रान्तीय भाषाओं का भी समावेश था। भगवान् बुद्ध की भाषा पाली थी जो उनके वज्जि जनपद से संबन्धित थी। भगवान् महावीर का जन्म क्षत्रियकुण्ड मगध में हुआ था जहाँ उस समय अर्द्धमागधी अधिक विकसित थी। समवायांगसूत्र एवं विशेषावश्यक टोका में अठारह लिपियाँ बताई गई हैं। इनमें से अधिकांश आर्यों से संबन्धित थीं। उस समय की भाषाओं के प्रयोग अशोक के लेख, खारवेल के लेख आदि में देखे जा सकते हैं। राजस्थान में आठवीं शताब्दी के बाद बड़ा उत्थान हुआ। प्रतिहारों के राज्य में व्यापार बढ़ा और कई नगर बने । श्रेष्ठिवर्ग का उदय इस काल की एक प्रमुख घटना है। ओसवाल, माहेश्वरी, खण्डेलवाल आदि जातियों का उद्भव एवं विकास लगभग इसी काल में हुआ। ये व्यापारी एक प्रदेश से दूससे प्रदेश में जाते एवं शीघ्र ही उन प्रांतों में प्रचलित भाषायें भी सीख लेते थे। कुवलयमाला में जिसकी रचना सं० ८३५ में उद्योतनसूरि ने की थी, सोलह जनपदीय भाषाओं का उल्लेख है । वहाँ इनके भेद भी वर्णित हैं। पड़ोसी प्रांतों की भाषा का एक दूसरे के ऊपर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है । संस्कृत और प्राकृत भी जैनों की भाषा रही है। इसमें कई ग्रंथ लिखे गये । कालान्तर में अपभ्रंश का भी व्यापक प्रचार रहा है। ७वीं शताब्दी से लेकर १८वीं शताब्दी तक इसके प्रयोग के उदाहरण मिलते हैं। जिनदत्तसूरि की चर्चरी, काल-स्वरूप कुलक और उपदेशरसायन 'अपभ्रंश काव्यत्रयी' में प्रकाशित हैं। इस अवधि की कई रचनाएँ दिगम्बर विद्वानों की मिलती हैं। उत्तरी भारत में उस समय व्यापक धार्मिक कार्य हुए थे। चौहानों, चालुक्यों, गहलोतों, भाटियों और परमारों ने पश्चिमी भारत में कई सांस्कृतिक कार्य किये। इनके शासनकाल में साहित्यकारों एवं जैन साधुओं द्वारा व्यापक साहित्य विरचित हुआ है। अजमेर में खरतरगच्छ का व्यापक प्रचार था। जिनदत्तसूरि के अतिरिक्त पल्ह कवि तथा कुमारपाल और हेमचन्द्र के प्रयत्न विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं । हेमचन्द्र ने देशीनाममाला में प्रथम बार तत्कालीन प्रचलित देशी शब्दों का संग्रह किया। श्वेताम्बर जैनों में ग्रंथ लिखाने की परम्परा जोरों से चली । लोगों को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए अवचूरि, ( 42 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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