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________________ २५२ डॉ० आनन्द प्रकाश श्रीवास्तव बनी । २४ तीर्थंकरों का सामूहिक अंकन भी उत्कीर्ण है । जिनों में सात सर्प- फणों के छत्र वाले पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ सर्वाधिक लोकप्रिय थीं । एलोरा की जैन मूर्तियों में छत्र सिंहासन,प्रभामण्डल जैसे प्रातिहार्यो, लांछनों, उपासकों एवं शासन देवताओं का अंकन हुआ है । इन्द्रसभा व जगन्नाथसभा सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं । इन मंदिरों के सहायक अंग आपस में निकटस्थ अनावश्यक आलंकारिक विवरणों से लदे हैं । इनकी संकुलित जटिलता के प्रदर्शन से दर्शक के नेत्र थक जाते हैं, उदाहरणार्थ इन्द्रसभा के आंगन में ध्वजस्तंभ मंदिर के द्वार और केन्द्रीय मण्डप के इतने पास स्थित हैं कि संपूर्ण अंश जबरदस्ती ठूंसा हुआ एवं जटिलदृष्टिगोचर होता है | आंगन के छोटे मापों एवं उसकी ओर उन्मुख कुछ कक्षों के स्तंभों के छोटेआकार से उपर्युक्त प्रभाव और भी बढ़ जाता है । ये विलक्षणताएं मंदिर के संयोजन में सामजस्य के अनुपात का अभाव प्रकट करती हैं, पर इनके स्थापत्यात्मक विवरण से पर्याप्त उद्यम एवं दक्षता का परिचय मिल जाता है । ऐसे उदाहरणों में कला मात्र कारीगरी रह जाती है, क्योंकि सृजनात्मक प्रयास का स्थान प्रभावोत्पादन की भाव- शून्य निष्प्राण चेष्टा ले लेती है । इन जैन गुफाओं में चार लक्षण उल्लेखनीय हैं, एक तो इनमें कुछ मंदिरों की योजना मंदिर समूह के रूप में है । दूसरी विशेषता स्तंभों में अधिकतर घटपल्लव एवं पर्यकशैलियाँ आदि का प्रयोग करके समन्वय का सराहनीय प्रयास किया गया । तीसरी विशेषता इनमें पूर्ववर्ती बौद्ध एवं ब्राह्मण गुफाओं जैसी विकास की कड़ी नहीं दिखाई देती । जैनों के एलोरा आगमन के पूर्व समूची बौद्ध एवं ब्राह्मण गुफाएं बन चुकी थीं । अतः साधन, सुविधा एवं समय के अनु-सार इन्होंने कभी बौद्ध एवं कभी ब्राह्मण गुफाओं से प्रेरणा ली । चौथी विशेषता यह है कि इन जैन गुफाओं में भिक्षुओं की व्यवस्था नहीं है । इस दृष्टि से ये लक्षण ब्राह्मण मंदिर के निकट हैं । एलोरा की जैन गुफाओं का निर्माण अधिकतर राष्ट्रकूट नृपतियों के राज्यकाल हुआ है। एलोरा की जैन मूर्तियाँ अधिकतर उन्नत रूप में उकेरी हैं । यहाँ तीर्थंकरों गोम्मटेश्वर बाहुबली एवं यक्ष-यक्षियों की मूर्तियाँ बनीं। एलोरा की जैन मूर्तियों में तीर्थंकरों के वक्षस्थल में 'श्रीवत्स' के अंकन की परिपाटी उत्तरभारत के समान प्रचलित नहीं थी समकालीन पूर्वी चालुक्यों की जैन मूर्तियों में भी यह चिह्न नहीं मिलता । साथ ही अष्ट महाप्रातिहार्यों में से सभी का अंकन भी यहाँ नहीं हुआ है । केवल त्रिछत्र, अशोकवृक्ष, सिंहासन, प्रभामण्डल, चाँवरधर सेवक एवं मालाधरों का ही नियमित अंकन हुआ है। शासन देवताओं में कुबेर या सर्वानुभूति यक्ष तथा चक्रेश्वरी, अंबिका एवं सिद्धायिका यक्षियों सर्वाधिक लोकप्रिय थीं । जिनों के साथ यक्ष-यक्षियों का सिंहासनछोरों पर नियमित अंकन हुआ है । " ज्ञातव्य है कि प्रारम्भिक राष्ट्रकूट जैन चित्रकला का विवरणात्तक ( सातवीं तेरहवीं शती ई०) विशद अध्ययन अभी भी अपेक्षित है । ६. डॉ० आनन्द प्रकाश श्रीवास्त, पूर्वनिर्दिष्ट पृ० १० ११ जी० याजदानी, दकन का प्राचीन इतिहास, दिल्ली, १९७७, पृ० ७०३ ७. ८. डा० आनन्द प्रकाश श्रीवास्तव, एलोरा की ब्राह्मणदेव प्रतिमाएँ पीएच० डी० शोध प्रम का०हि०वि०वि०, वाराणसी, १९८५ पृ० ११ । ९ प्रोफेसर कृष्णदत्त वाजपेयी का सुझाव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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