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________________ २३२ डा० हरीन्द्र भूषण जैन हैं जिन पर उस-उस दिशा के क्षेत्रों में उत्पन्न हुए तीर्थंकरों का अभिषेक होता है। इसका रंग पीला है। वेदों में मेरु नहीं है। तैत्तिरीय आरण्यक ( १.७.१.३.) में 'महामेरु' है किन्तु इसकी पहचान के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं है। रामायण, महाभारत, बौद्ध एवं जैन आगम साहित्य में इसके परिणाम तथा स्थान के बारे में प्रायः एक जैसे ही कथन उपलब्ध हैं। परशियन, ग्रीक, चाइनीज, ज्यूज तथा अरबी लोग भी अपने-अपने धर्मग्रन्थों में मेरु का वर्णन करते हैं। नाम, स्थान आदि के विषय में भेद होते हुए भी केन्द्रीय विचारधारा वही है जैसा हिन्दू पुराणों में इसका वर्णन है। जोरोस्ट्रियन धर्मग्रन्थ के अनुसार अल-बुर्ज ( Al-Burj) नामक पर्वत ने ही पृथ्वी के समस्त पर्वतों को जन्म दिया और इसी से विश्व जल से आप्लावित करने वाली नदियाँ निकलीं। यही अल-बर्ज, मेरु है। चाइनीज लोगों का विश्वास है कि 'त्सिग लिंग' ( Tsing-Ling ) ही मेरुपर्वत है। इसी से विश्व के समस्त पर्वत और नदियाँ निकलीं। मेरु के परिमाण और आकार के विषय में विष्णुपुराण में उल्लेख है कि सभी द्वीपों के मध्य में जम्बूद्वीप है और जम्बूद्वीप के मध्य में स्वर्णगिरि मेरु है। इसकी समस्त ऊँचाई एक लाख योजन है, जिसमें से १६ हजार योजन पृथ्वी के नीचे और चौरासी हजार योजन पृथ्वी के ऊपर है। चोटी पर इसका घेरा बत्तीस हजार योजन तथा मूल में सोलह हजार योजन है, अतः इसका आकार ऐसा प्रतीत होता है मानो यह पृथ्वीरूपी कमल का 'कमलगट्टा' (Seedcup) हो । पद्मपुराण के अनुसार इसका आकार धतूरे के पुष्प जैसा घण्टे के आकार (Bellshape) का है। वायुपुराण के अनुसार चारों दिशाओं में फैली इसकी शाखाओं के वर्ण पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर में क्रमशः श्वेत, पीत, कृष्ण और रक्त हैं । सीलोन के बुद्धिस्ट लोगों के अनुसार मेरु का घेरा सर्वत्र एक जैसा है। नेपाली परम्परा के अनुसार इसका आकार ढोल जैसा है। आधुनिक भौगोलिक मान्यता मेरु की उपयुक्त स्थिति को ध्यान में रखते हुए अब हमें उसके वर्तमान स्वरूप और स्थान के विषय में विचार करना चाहिए। हिमालय तथा उसके पार के क्षेत्र (Himalayan and Trans-Himalayan Zone) में पाँच उन्नत प्रदेश हैं। पुराणों में प्राप्त मेरु के विवरण के आधार पर, इन उन्नत प्रदेशों की तुलना मेरु से की जा सकती है। ये प्रदेश हैं १-कराकोरम (Karakoram) पर्वत शृङ्खलाओं से घिरा क्षेत्र, २-धौलगिरि (Dhaulagiri) पर्वत शृङ्खलाओं से घिरा क्षेत्र, १. सर्वार्थसिद्धि-तृतीय अध्याय पृ० २११-२२२ भारतीय ज्ञानपीठ, काशी २. डॉ० एस० एम० अली Geo of Puranas, ch. III ( The Mountain System of the Puranas) पृ० ४७-४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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