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________________ कविवर बनारसीदास और जीवन-मूल्य २२१ है। पर मेरी अपनी दृष्टि में कविवर बनारसीदास को शायद यह अभिप्रेत नहीं है। कवि की पकड़ सामाजिक यथार्थ से गुजरती हुई होकर भी आत्मालोचन और अन्तर्निरीक्षण की है। अपनी आत्मकथा के माध्यम से वस्तुतः वह 'पर' से न जुड़कर 'स्व' से ही अधिकाधिक जुड़ता चलता है। आत्मकथा का लेखन एक प्रकार से कवि का प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण का जैन-परम्परा में विशेष महत्व है। प्रत्येक श्रमण श्रावक प्रतिदिन की अपनी चर्या में रहे हए छिद्रो को भरने के लिए, अन्तरावलोकन करता है। अपने कृत कर्मों का प्रातः सायं आत्मचिंतन कर उसमें हुए पाप दोषों से निवृत्ति के लिए वह प्रायश्चित्त करता है और भविष्य में दोषों की पुनरावृत्ति न हो, इसके लिए सावधानी बरतने का संकल्प करता है। दूसरे शब्दों में जो-जो अतिक्रमण हए हैं, उसका प्रतिक्रमण कर वह विभाव, विकारों से दूर हट कर, अपने स्वभाव में स्थिर होता है। ज्यों-ज्यों मैं कवि की आत्मकथा 'कथानक' का पारायण करता हूँ, त्यों-त्यों मुझे लगता है कि यह कवि के ५५ वर्ष के जीवन का प्रतिक्रमण है जिसमें वह अपने दोषों विकारों पर स्वयं हँसता है और दूसरों को हँसाता है। इस तरह अपनी मनोग्रन्थियों को निग्रंथ बनाने की कला का उत्कृष्ट रूप हैं यह आत्मकथा। यह कथा संस्मरणात्मक होकर भी प्रतिक्रमणात्मक है और सचमुच बनारसीदास के जीवन का आरसी बन गई है । बना आरसी =बनारसी। प्रतिक्रमण का भाव अर्थात् पीछे लौटाकर अपने विकारों और कमजोरियों को गुण-दोष को देखने की प्रवत्ति तब ही जागती है जब चित्तवत्ति निर्मल और हदय सरत और सरल हृदय ही जीवन मूल्यों का निर्माण कर सकता है। जहाँ वक्रता और वंचकता होती है, वहाँ मूल्य अर्थात् वैल्यू का निर्माण नहीं होता। हाँ, वक्र व्यक्ति कीमत अर्थात् प्राइस की दुनिया में अवश्य चलता-फिरता हैं। बनारसीदास धर्म को कीमत अर्थात् प्राइस के रूप में नहीं मूल्य अर्थात् वैल्यू के रूप में स्वीकार करते हैं। इसीलिए बनारसीदास के लिए समय धर्म नहीं वरन् आत्मा है। वे समय के सार को केवल बाँचते और पढ़ते नहीं, वरन् जीवन में उतारते हैं और सतत जागरूक बने रहते हैं । यह जागरुकता उन्हें समझौतावादी नहीं बनाती,साम्यवादी बनाती है। उनकी दृष्टि में सम्पदा धन-दौलत और जड़ पदार्थ नहीं है। सच्ची सम्पदा वह है जो सम्पदा सम्प (आपसी एकता) दे, सन्तोष दे, समता भाव में रमाये । कवि बनारसीदास का सम्पूर्ण जीवन विषमता के खिलाफ संघर्ष करने का जीवन है। आर्थिक विषमता से तो व्यापारी होने के कारण वे जूझते ही रहे। पर समाज सुधारक एवं तत्त्व द्रष्टा के रूप में वे सामाजिक विषतमा एवं धामिक विषमता से भी जझते। कबीर की तरह उन्होंने वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलन्द की और 'कोई जन्म से नहीं, कर्म से महान होता है' भगवान महावीर की इन वाणी को उन्होंने अपने शब्दों में प्रस्तुत किया। उनकी दृष्टि में तिलक, माला, मुद्रा और छाप धारण करने वाला वैष्णव नहीं है। सच्चा वैष्णव वह है जो संतोष का तिलक, वैराग्य की माला, ज्ञान की मुद्रा और श्रुति की छाप धारण करता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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