SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९८ महोपाध्याय विनसागरय ८. जो " मृगसम " श्रमण-चर्या की साधना में सर्वदा चौकन्ना एवं सरल स्वभावी रहता है । ९. जो " धरणिसम" पृथ्वी के समान समस्त कष्टों / उपद्रवों को सहन करता है । १०. जो " जलरुहसम" कमल के समान निर्लिप्त रहता है । ११ जो "रविसम" भेदभाव से रहित होकर श्रुतज्ञान का प्रकाश करता है । १२. जो " पवन सम" पवन के समान अप्रतिहत गति वाला होकर सर्वत्र विचरण करता है । उक्त बारह गुणों से जो युक्त/समृद्ध होता है, वही श्रमण कहलाता है । किस प्रकार के आचरण वाला एवं गुण सम्पन्न मुनि मोक्ष प्राप्त कर सकता है ? इसका उत्तर देते हुए शास्त्रकारों ने कहा है : "सीह-गय-वसह-मिय-पसु मारुत सुरुवहि-मंदरिन्दु-मणी । खिदि - उरगंबरसरिसा, परमपय विमग्गया साहू ||” अर्थात् सिंह के समान पराक्रमी, हाथी के समान स्वाभिमानी, वृषभ के समान भद्र, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह, वायु के समान निस्संग, सूर्य के समान तेजस्वी, सागर के समान गम्भीर, मेरु के समान निश्चल, चन्द्रमा के समान शीतल, मणि के समान कान्तिमान्, पृथ्वी के समान सहिष्णु, सर्प के समान अनियत आश्रयी तथा आकाश के समान निरवलम्ब साधु ही परम पद मोक्ष के मार्ग पर चलता है । श्रमण के पर्यायवाची शब्द : से आगम ग्रन्थों, प्रकरण ग्रन्थों एवं कोषों में श्रमण के पर्यायवाची शब्द भी बहुतायत प्राप्त हैं, जिनमें से मुख्य-मुख्य हैं : १. निर्ग्रन्थ, ४. अनगार ७. माहण १०. ऋषि Jain Education International २. भिक्षु ५. मुनि ८. वाचंयम ११. व्रती, आदि ३. यति ६. साधु उक्त प्रत्येक शब्दों के अर्थ भिन्न-भिन्न होते हुए भी सभी शब्द श्रमण के समानार्थी है और भिन्न-भिन्न दृष्टियों से साधनापरक व्यक्तित्व के द्योतक हैं । इन प्रत्येक शब्दों के व्युत्पत्तिपरक अर्थ निम्नलिखित हैं :-- ९. मुमुक्षु १. निर्ग्रन्थ - धन, धान्यादि नौ प्रकार के बाह्य परिग्रह और राग-द्वेषादि अन्तरंग परिग्रह से रहित होता है २. भिक्षु ३. यति आठ प्रकार के कर्मों का भेदन करता है, अथवा भिक्षा से शरीर निर्वाह करता है । For Private & Personal Use Only समस्त प्रकार के संगों से रहित होता है अर्थात् निस्संग होता है । अथवा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करता है । अथवा क्षान्ति, ऋजुता, मृदुता आदि दशविध धर्म का पालन करता है । www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy