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________________ श्रमण : महावीर तीर्थ का प्रमुख स्तम्भ महोपाध्याय विनयसागर श्रमण भगवान महावीर ने तीव्र एवं कठोरतम साधना कर केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त किया। ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् सर्वजनहिताय उन्होंने सदुपदेश दिया। स्वानुभूति के आलोक में कथित उनकी वाणी को सुनकर अनेक लोग प्रभावित हुए । अनेक राजा, महाराजा, उनकी रानियाँ, राजकुमारियाँ, राजकुमार, सार्थवाह, श्रेष्ठ, विद्वर्ग तथा सभी वर्गों एवं वर्णों के नारी-पुरुष उनके शिष्य बने, गणधर आदि बने। अपने विशाल शिष्य समुदाय को दीक्षित कर उन्होंने अपने तीर्थ की स्थापना की। इस तीर्थ को अनुशासित और सुव्यवस्थित रखने के लिये उन्होंने चतुर्विध संघ की व्यवस्था प्रदान की। इसी संघ की पावनता को परख कर ही आप्त शास्त्रकारों ने इसे तीर्थ, महातीर्थ, धर्मतीर्थ, सर्वोदय तीर्थ, अभ्युदयकारी शासन आदि गरिमा मण्डित संज्ञाओं/नामों से अभिहित किया है। चतुर्विध संघातीर्थ की सुव्यवस्था एवं उत्कर्ष के लिये परवर्ती श्रुतधर तथा आप्त आचार्यों ने गच्छ, कुल, गण व संघ के नाम से उपविभाग भी किये हैं। जिसमें श्रमण ए श्रमणियों (साधु-साध्वियों) की सुविधापूर्वक देख-रेख, शिक्षा-दीक्षा व व्यवस्था सम्पन्न की जा सकती हो, ऐसे समूह को “गच्छ' कहा जाता है और उसके नायक या व्यवस्थापक को "गच्छाचार्य' कहा जाता है। अनेक गच्छों में विभक्त इस समुदाय को "कुल' कहा गया है, अर्थात् अनेक गच्छों का एक कुल होता है। कुल के प्रमुख नायक को "कुलाचार्य कहा गया है। इसी प्रकार अनेक कुलों के समुह को “गण" और उसके अधिपति को "गणाचार्य' तथा अनेक गणों के समुदाय को "संघ" एबं संघाधिपति आचार्य को "गणधर "संघाचार्य' के गौरव से विभूषित किया गया है। यही संघाचार्य चतुर्विध संघ की सुव्यवस्था एवं कार्य-संचालन करते हैं। कल्पसूत्र-गत स्थविरावली के अनुसार देवधिगणि क्षमाश्रमण के समय तक इस तीर्थ में ८ गण, २७ कुल और ४५ शाखाओं का प्रचलन था और इनके अधिकारी/शासक/व्यवस्थापक वर्ग को क्रमशः गणधर, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक, गणि और गणावच्छेदक पदों से संबोधित किया गया है। वर्तमान समय में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज में जो भी खरतरगच्छ, तपागच्छ, अंचलगच्छ आदि गच्छों के नाम से प्रचलित/प्रसिद्ध हैं, वे सब कोटिक गण, चन्द्रकुल और वज्रशाखा के अन्तर्गत आते हैं और खरतर तथा तपा आदि 'विरुद/उपाधि' के धारक हैं । वस्तुतः ये पृथक्-पृथक् गच्छ नहीं हैं। उनका तो सुस्थितसूरि का कोटिक गण, चन्द्रसूरि का चन्द्रकुल एवं आर्यवज्र से निसृत वज्रशाखा ही गण, कुल एवं शाखा है । ये विरुद तो जिनेश्वरसूरि और जगच्चन्द्रसूरि की उत्कृष्ट संयम-साधना को देखकर तत्कालीन नरेशों ने प्रदान किये थे अथवा उनके विशिष्ट गुणों या क्रिया-कलापों से उनकी परम्परा उक्त विरुदों से प्रसिद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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