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________________ समाधिमरण जीवन से भागना नहीं १७७ विचलित कर देने वाली होती है, से अविचलित रहते हुये आत्मीय गुणों की रक्षा करते हुए शरीर का त्याग कर देते हैं । प्रसिद्ध ग्रंथ "सागारधर्मामृत' में कहा गया है कि शरीर नाश होने पर पुनः प्राप्त हो सकता है लेकिन आत्म-धर्म या आत्मीय गुणों का नाश होने पर इसका पुनः प्राप्त होना असंभव है।'' अतः आत्मा और अनात्मा (शरीर) के भेद को समझकर व्यक्ति को समाधिमरण का अवलम्बन लेकर आत्मा से परमात्मा की ओर बढ़ना चाहिये । भ्रान्तिवश लोग समाधिमरण को आत्महत्या मानते हैं। इसे जीवन से भागने वाला व्रत बताते हैं। उनके अनुसार समाधिमरण द्वारा अभिप्राय पूर्वक आयु का विनाश किया है। अतः यह आत्महत्या है। इस प्रकार का दोषारोपण समाधिमरण के मर्म से अनभिज्ञ लोग ही करते हैं। वे हिंसा के लक्षण को नहीं जानते हैं, हिंसा तो वहीं होती है जहाँ प्रमादवश प्राण का नाश किया जाता है। "तत्त्वार्थवार्तिक" में कहा गया है- “राग द्वेष, क्रोधादिक पूर्वक प्राणों का नाश किये जाने पर वह अपघात कहलाता है। लेकिन समाधिमरण में न तो राग है, न द्वेष है और न ही प्राणों के त्याग का अभिप्राय है। साधक जीवन और मरण दोनों के प्रति अनाशक्त रहता है।" २ पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने 'धर्मामृत' ( सागर )२ में कहा है आत्महत्या राग-द्वेष से युक्त होती है तथा राग द्वेष से मुक्त मृत्यु को अपघात से अलग कहा है। एक और विद्वान् आत्महत्या को अहिंसा से जोड़ते हुए अहिंसा का लक्षण बताया है। उनके अनुसार जहाँ राग द्वेष भाव की उत्पत्ति नहीं होती है वहाँ अहिंसा है तथा राग-द्वेष से युक्त भाव पैदा होने पर वहाँ हिंसा होती है। समाधिमरण करने वाला व्यक्ति राग द्वेष के नाश के अभिप्राय से एवं वीतराग भाव पूर्वक अपने प्राणों का उत्सर्ग करता है। अतः यहाँ आत्मवध का दोष नहीं रह जाता। जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपने घर में अग्नि लगते देखकर यह जान जाता है कि मेरा घर अग्नि के कारण जलने से नहीं बच पाएगा और वह घर में रखी हुई अमूल्य वस्तुओं की रक्षा में तत्पर हो जाता है । उसी प्रकार जब कोई व्यक्ति इस तथ्य से अवगत होकर कि अब मेरा शरीर अधिक जीर्ण-शीर्ण हो चुका है और यह शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाला है, वह अपनी इस भौतिक और क्षणिक शरीर की चिंता न करके उस शरीर में रखे हुये अमूल्य आत्मिक गुणों की रक्षा के लिए राग-द्वेष, मोहादि का नाश करता है। इसके अलावा अंतकाल को अमूल्य समझकर समाधिमरण का आश्रय लेकर चिर शान्ति को प्राप्त करता है। १. नावश्य नाशिने हिंस्यो धर्मो देहाय कामदः । देहा नष्ट: पुनर्लभ्यो धर्मस्त्वत्यन्त दुर्लभः ॥ ८७ ।। सागरधर्मा० २. तत्त्वार्थवार्तिक भाग २, पृ० ७३७ ३. धर्मामृत (सागार) पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री पृ० ३१२ ४. जैनमित्र वर्ष ५७, पृ० १३९ ५. धर्मांमृत (सागार) पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री पृ० ३१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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