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________________ छात्रवृत्ति के प्रलोभन में आते हैं वे भी मन लगाकर श्रम नहीं करते । यद्यपि देश में अनेक विश्वविद्यालयों में संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था है किन्तु आज भी देश में दो-चार विश्वविद्यालयों को छोड़कर अन्य कहीं भी प्राकृत भाषा के सम्यग् अध्ययन-अध्यापन के कोई विभाग नहीं हैं । उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, देहली, महाराष्ट्र, और आन्ध्र प्रदेश में एक भी विश्वविद्यालय ऐसा नहीं है जहाँ प्राकृत के सम्यग् अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था हो। पहले नागपुर और जबलपुर में संस्कृत के साथ-साथ प्राकृत के स्नातकोत्तर अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था थी किन्तु वह भी नाम शेष हो गई है । वाराणसी जिसे विद्या का केन्द्र कहा जाता है वहाँ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और काशी विद्यापीठ किसी में भी प्राकृत अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था नहीं हैं। यद्यपि संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में प्राकृत और जैन आगम का विभाग है किन्तु वहाँ भी छात्रों का पूर्णतया अभाव है । अतः यह चिन्ता सदैव ही बनी रहती है कि भविष्य में प्राकृतभाषा के अध्ययन, अध्यापन और संशोधन की प्रवृति किस प्रकार जीवित रहेगी। मुझे दुर्भाग्य से यह भी कहना पड़ता है कि मेरे बुजुर्ग और मेरी पीढ़ी के विद्वानों ने भी जो कुछ कार्य विगत वर्षों में किया है उस स्तर के कार्य का भी अब अभाव देखा जाता है। आप सब विद्वानों के समक्ष मेरी यही विनती है कि आप प्राकृत भाषा के अध्ययन-अध्यापन की परंपरा को जीवित बनाये रखें और इस दिशा में सक्रिय रूप से कार्य करें। जो स्थिति प्राकृत की है वही स्थिति अब अपभ्रंश की होती जा रही है उस क्षेत्र में भी विद्वानों का अभाव ही है। आशा है कि विद्वत् वर्ग मेरे मन की पीड़ा को समझेगा और इस दिशा से कार्य करेगा। आज जैन विद्या के विश्वकोश का अभाव हम सभी को पर्याप्त रूप से खलता है यद्यपि राजेन्द्रसूरिजी ने अभिधानराजेन्द्रकोश के नाम से एक कार्य किया था। यह भी प्रसन्नता का विषय है कि जो राजेन्द्रकोश वर्षों से अनुपलब्ध था वह पुनः मुद्रित होकर उपलब्ध हो गया है, फिर भी उस ग्रन्थ में अनेक कमियाँ हैं। फोटोस्टेट प्रक्रिया से छपने के कारण प्रथम तो उसके टाइप ही ऐसे हैं कि आज के पाठक को पढ़ने में कठिनाई उत्पन्न करता है। दूसरे मात्र प्राकृत भाषा का मर्मज्ञ ही उस कोश को देख सकता है। जब तक संस्कृत एवं प्राकृत का जानकार न हो उसके लिए उस ग्रन्थ का उपयोग करना दुष्कर कार्य है। उस क्षेत्र में दूसरा महत्वपूर्ण कार्य जिनेन्द्र वर्णीजी का जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश है। वह भी कई वर्षों से अनपलब्ध था किन्त भारतीय ज्ञानपीठ इसको पनः प्रकाशित कर रही है यह संतोष का विषय है। यह निश्चित ही हिन्दी पाठक के लिए उपयोगी कृति है। किन्तु जहां अभिधानराजेन्द्रकोश में दिगम्बर ग्रंथों के सन्दर्भो का अभाव है वहाँ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में श्वेताम्बर ग्रन्थों के सन्दर्मों का नितान्त अभाव है। पूनः अंग्रेजी भाषा की दृष्टि से यह क्षेत्र अभी तक रिक्त है । अतः जनविद्या विश्वकोश ( इन्साइक्लोपीडिया ऑफ जैनिज्म ) का कार्य तत्काल करने योग्य है। अन्य तत्काल करने योग्य कार्यों में आगमों के अतिरिक्त चूणि, भाष्य, नियुक्ति आदि का हिन्दी एवं अंग्रेजी अनुवाद के साथ पुनः प्रकाशन भी आवश्यक है। पुनः जैन भण्डारों में अभी तक हजारों ग्रन्थ ऐसे पड़े हुए हैं जिनका न तो मुद्रण ही हुआ है और न विद्वानों को उनकी जानकारी है। प्रयत्न करके ग्रन्थ भण्डारों को सूचियों का और अमुद्रित महत्वपूर्ण ग्रंथों के प्रकाशन की व्यवस्था भी हमें करना चाहिए। प्राकृत और जैन विद्या के क्षेत्र में करने योग्य कार्यों के सन्दर्भ में श्री जौहरीमल पारख ने एक विस्तृत योजना बनाई है, जो यहाँ विचारार्थ प्रस्तुत की जा रही है। अतः मैं विद्वानों से और ( 10 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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