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________________ योग का प्रारम्भिक अधिकारी १५९ को प्राप्त नहीं कर पाते, ऐसे योग-भ्रष्ट व्यक्ति को अगले जन्म में अपने पूर्व जन्म के विशिष्ट संस्कार स्वतः प्राप्त हो जाते हैं। इसलिए उनके लिए वर्तमान जन्म में उक्त गुणों की अनिवार्यता नहीं होती। ऐसे साधकों को पातंजल-योगसूत्र में 'भवप्रत्यय' के नाम से अभिहित किया गया है । इनसे भिन्न 'उपाय प्रत्यय' अधिकारी में ही उपरोक्त गुणों की अपेक्षा होती है। क्योंकि चित्त की एकाग्रता एवं समाधि की सिद्धि के लिये उन्हें जो विशिष्ट प्रयास करना पड़ता है वह उक्त गुणों के बिना सम्भव नहीं होता। . जैन परम्परानुरूप योगसाधना का वास्तविक अधिकारी चारित्र सम्पन्न व्यक्ति होता है । वहाँ चारित्र से सम्पन्न होने के लिए जीव का सम्यग्दृष्टि तथा तत्त्वज्ञानी ( सम्यग्ज्ञानी) होना अनिवार्य माना गया है । सम्यग्दृष्टि ( सम्यग्दर्शन ) की पात्रता के लिए यह आवश्यक है कि कर्मों का आवरण इतना मन्द पड़ जाए कि जीव द्वारा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हेतु किये जा रहे पुरुषार्थ की सफलता निश्चित हो जाए अर्थात् सम्यक्त्व प्राप्ति का नियत काल समुपस्थित हो गया हो । उक्त काल तभी सम्भव है जब जीव के संसार-भ्रमण का काल अधिक से अधिक अर्धपुद्गल परावर्तन जिसे आचार्य हरिभद्र ने चरमावर्त या चरम पुद्गलावर्त ५ के नाम से अभिहित किया है, मात्र शेष रह गया हो । आचार्य हरिभद्र प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने उक्त तथ्य को अनुभव किया है और अपने सभी धार्मिक, दार्शनिक एवं योग ग्रन्थों में उसकी चर्चा की है। उनके मतानुसार योग का अधिकारी होने के लिए यह आवदयक है कि तीव्र कर्मबन्ध की स्थिति न हो, क्योंकि कर्मबन्ध की तीव्र या उत्कृष्ट स्थिति वाले जीव में अन्तर्मुखी प्रवृत्ति की सम्भावना नहीं होती । ऐसे जीव को आचार्य हरिभद्र ने 'अपुनर्बन्धक' नाम से अभिहित किया है। इसे शुक्लपाक्षिक भी १. पा० यो० सू० १११९ २. वही ११२० ३. तत्त्वार्थसूत्र ११; उत्तराध्ययनसूत्र २५।२९; भगवतीआराधना ७३५ ४. जीव द्वारा लोक-व्याप्त समस्त पुद्गलों को एक बार ग्रहण व त्याग करने में जितना समय लगता है उसे पुद्गल परावर्त कहते हैं, इसमें कुछ ही काल कम हो तो उसे अर्ध-पुद्गल परावर्त कहा जाता है। ५. चरम पुद्गलावर्त या चरमावर्त अनादि संसार का वह सबसे छोटा व अन्तिम काल है जिसे भोगने के पश्चात् जीव पुन: जन्म-मरण के चक्र में नहीं पड़ता। ६. जैन शास्त्रों में मिथ्यात्व (मोहनीय कर्म) बन्ध की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण तथा जघन्य स्थिति अन्त: कोड़ा-कोड़ी सागरोपम मानी गई है। -गोम्मटसार १०६ पर कर्णाटक वृत्ति ७. योगबिन्दु १०१; योगशतक १० तुलना पा० यो० सू० २।१७, १८. ट: योगबिन्दु-१७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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