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________________ १५४ जिनेन्द्र कुमार जैन फिर वे एक स्वरूप होकर कैसे रह सकते हैं ? पवन चंचल है और पृथ्वी अपनी स्थिरता लिए हुए स्थिर है ।' यदि जीव का जीवत्व कृत्रिम है और वह चारभूतों के संयोग से उत्पन्न हुआ है, तो मेरा कहना है कि भोगों का उपयोग करने वाले त्रैलोक्य के जीवों का स्वभाव एक सा क्यों नहीं है ? शरीर एक सा क्यों नहीं है ? अतः यह सब पण्डितों का वितण्डामात्र है। महापुराण में राजा महाबल के मंत्री महामति द्वारा चार्वाक दर्शन के तात्त्विक सिद्धान्त का समर्थन किया गया है। तब इसका खण्डन करते हुए अन्य मंत्री स्वयंबुद्ध कहता है कि"भूतचतुष्टय के सम्मिलन मात्र से जीव ( चैतन्य ) किसी भी प्रकार उत्पन्न नहीं हो सकता। यदि ऐसा होता तो औषधियों के क्वाथ ( काढ़ा ) से किसी पात्र में भी जीव उत्पन्न हो जाते, परन्तु ऐसा नहीं होता। जैन, बौद्ध और न्यायदर्शन जहाँ अनुमान को भी प्रमाण मानकर चलते हैं वहाँ चार्वाक दर्शन केवल प्रत्यक्ष को प्रमाण मानता है । इसीलिये जैन, बौद्ध, ब्राह्मण आदि मतों के आचार्यों ने इस भौतिकवादी दर्शन का विरोध किया है।" जसहरचरिउ में भी तलवर (कोतवाल) एवं मुनि के संवादों में चार्वाक दर्शन के “प्रत्यक्ष ही प्रमाण है" इस मत की समीक्षात्मक व्याख्या प्रस्तुत की गई है। बौद्ध-दर्शन की समीक्षा :- बौद्ध दर्शन जगत् की समस्त क्रियाओं का मूल आत्मा को मानता है। किन्तु उसकी पृथक् एवं नित्य सत्ता को स्वीकार न करते हुए, उसे अनित्य मानता है। क्योंकि वह जगत् को क्षणविध्वंशी मानता है। प्रत्येक वस्तु है, यह एक मत है, तथा प्रत्येक वस्तु नहीं है यह दूसरा एकान्तिक दृष्टिकोण है। इन दोनों ही एकातिक दृष्टिकोणों को छोड़कर बुद्ध मध्यममार्ग का उपदेश देते हैं। मध्यम सिद्धान्त का सार है कि "जीवन सम्भूति ( Becoming ) है, भावरूप है। संसार की प्रत्येक वस्तु अनित्य धर्मों का संघात मात्र है। अतः प्रत्येक वस्तु एकक्षण को ही रहती है। बौद्धदर्शन पदार्थों की उत्पत्ति कारण कार्य से मानता है। जिसे 'प्रतीत्यसमुत्पाद ( Dependent Origination ) कहते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार एक वस्तु से एक ही कार्य होता है और अगले ही क्षण दूसरा कार्य होता है । अथवा १. णायकुमारचरिउ-९।११।१-२ २. णायकुमारचरिउ-९/१११४-६ ३. महापुराण-२०१७ महापुराण-२०।१८।१०-११ ५. रामायण (वाल्मीकि) अयोध्याकाण्ड-१००।३८ सद्धर्मपुण्डरीक-परिच्छेद १३, आदिपुराण (जिनसेन) ५।७३ ६. जसहरचरिउ-३।२२।१७, ३।२३।५-९, ३।२४।१-२ ७. णायकुमारचरिउ-९।५।२ ८. संयुत्तनिकाय-१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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