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________________ १४५ आगे बढ़ाया। उन्होंने बारहविध तप का विशेष स्पष्टीकरण किया और आभ्यंतर तप के छः भेदों एवं उनके प्रभेदों का निरूपण करके तप के अर्थ को और विस्तृत किया। अकलंक ने गीता सम्मत मौन का अंतर्भाव कायक्लेश में किया किन्तु उसे बाह्य तप क्यों माना वह चिन्त्य है। यद्यपि मौन का सम्बन्ध मन से है, फिर भी इसकी संगति इस ढंग से बिठाई जा सकती है कि मौन में जिह्वानियंत्रण शारीरिक है। औपपातिकसूत्र में द्वादशविधि तप भेदों के बहुत से प्रभेद पाये जाते हैं। इस तरह प्रभेदों की संख्या बढ़ती गई और तप का अर्थ धीरेधीरे अत्यन्त विस्तृत बनता गया। इस तरह हम देख सकते हैं कि वैदिक परंपरा में तप समाधि का एक अंग है, जब कि जैन परंपरा में ध्यान (समाधि) तप का एक अंग है। अर्थात् जैन परंपरा में तप का अर्थ वैदिक परंपरा की अपेक्षा अत्यधिक विस्तृत है। जैन सम्मत तपभेद-जैनाचार्यों ने अन्य बहुत से तप-प्रभेदों का अंतर्भाव स्थानांगगत बारह भेदों में ही किया है। इनमें से बहुत से भेद-प्रभेद वैदिक विचारणा से खूब मिलते-जुलते हैं। यहाँ मुख्यतः बारह भेदों की ही तुलना अभिप्रेत है बाह्य तप १. अनशन-वैदिक और जैन दोनों परंपराओं में चतुर्थ भक्त से लेकर छः मास के उपवास का विधान है। जैन सम्मत चतुर्थ भक्त और अष्टम भक्त मनुस्मृति सम्मत चतुर्थकालिक और अष्टम कालिक है।३ उमास्वाति ने उपवास के ध्येय को स्पष्ट किया। अकलंक ने एक भुक्त को भी अनशन की कोटि में रखा। अकलंक की इस सुधारणा पर गीता और बौद्ध मंतव्य का असर देखा जा सकता है, क्योंकि ये दोनों धाराएँ एकान्त अनशन को अस्वीकार करती हैं। एक भुक्त का उल्लेख उमास्वाति, पूज्यपाद और औपपातिक सूत्र में नहीं है। अकलंक का यह प्रयास आगे नहीं बढ़ सका, क्योंकि श्री महावीर ने दीर्घकाल तक उपवास किया था। अतः जैन समाज में आज भी उपवास के प्रति गहरी श्रद्धा देखी जाती है, उतना ही नहीं, वह साधनरूप होने पर भी उसे आज साध्य माना जाता है जो दुःखद है। २. अवमौदर्य-यह गीतासम्मत युक्ताहार है। मनु और आयुर्वेद भी मिताहार के समर्थक हैं। उमास्वाति अवमौदर्य की तीन कक्षाएँ बताते हैं और ३२ ग्रास को पूर्ण आहार कहते १. पं० दलसुख मालवणिया जी का सुझाव है। २. औपपातिकसूत्र ३० पृ०४६ । ३. चतुर्थकालिको वा स्यात् स्याद्वाप्यष्टमकालिकः । मनुस्मृति ६-१९; .... अष्टमकालिको वा भवेत् त्रिरात्रमुपोष्य चतुर्थस्य अह्नो रात्रो भुजीत। ...."सायंप्रातर्मनुष्याणामशनं देवनिर्मितमिति कुल्लकभट्टविरचितवृत्ति ६-१९। ४. तत्रावधूतकालं सकृद्भोजनं, चतुर्थभक्तादि..... तत्त्वार्थवार्तिक ९-१९-२ ५. भगवद्गीता ६-१६ | ६. भगवद्गीता ६-१६, १७, मितभुक-आयुर्वेद । मनुस्मृति २-५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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