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________________ जैन शिक्षा दर्शन में गुरु की अर्हताएँ १३७ पुनः करण्डक की उपमा देकर आचार्य के चार प्रकार बताये गये हैं- . . (१) चाण्डाल अथवा चर्मकार के करण्डक तुल्य-जो आचार्य षट्काय प्रज्ञापक का धारक एवं विशिष्ट क्रियाहीन है वह उसी प्रकार निकृष्ट है जिस प्रकार चर्म आदि रखे रहने से चाण्डाल का करण्डक । (२) वेश्या के करण्डक तुल्य-जो आचार्य ज्ञान अधिक न होने पर भी वाग आडम्बर से व्यक्तियों को प्रभावित कर लेता है वह वेश्या के करण्डक के समान है। (३) गहपति के करण्डक तुल्य-जो आचार्य स्वसमय, परसमय के जानकार हों तथा चरित्र सम्पन्न हों, वे गृहपति के करण्डक के तुल्य शोभित होते हैं। (४) राजा के करण्डक तुल्य-आगम में वर्णित आचार्य के समस्त गुणों से सम्पन्न आचार्य उसी प्रकार सर्वश्रेष्ठ है जिस प्रकार बहुमूल्य रत्नों से भरा राजा का करण्डक श्रेष्ठ है। गुरु का महत्व : गुरु का स्थान हमारे समाज में अतीव पूजनीय है । दशवकालिक सूत्र में आचार्य की गरिमा पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है "जिस प्रकार प्रातःकाल देदीप्यमान सूर्य समस्त भरतखण्ड को अपने किरण समूह से प्रकाशित करता है, ठीक उसी प्रकार आचार्य भी श्रुत, शील और बुद्धि से युक्त हो उपदेश द्वारा जीवादि पदार्थों के स्वरूप को यथावत् प्रकाशित करता है तथा जिस प्रकार स्वर्ग में देव सभा के मध्य इन्द्र शोभता है, उसी प्रकार साधु-सभा के मध्य आचार्य शोभता है।"२ पुनः चन्द्रमा की उपमा देते हुए कहा गया है-- "जिस प्रकार कौमुदी के योग से युक्त तथा नक्षत्र और तारों के समूह से घिरा हआ चन्द्रमा, बादलों से रहित अतीव स्वच्छ आकाश में शोभित होता है, ठीक उसी प्रकार आचार्य भी साधु-समूह में सम्यक्तया शोभित होते हैं।"३ इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन वाङ्मय में आचार्य की अर्हताएँ अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी हैं। सचमुच जिसकी ज्ञानदृष्टि सूर्य के किरणों की भाँति तीक्ष्ण हो तथा जो चन्द्रमा की तरह लोगों को शीतलता प्रदान करे वह कितना महान् है। जो स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाशित करता है उसकी महानता को शब्दों में व्यक्त करना मानों सूर्य को दीपक दिखाना है। १. स्थानांगसूत्र ४/४/५४१ २. जहा निसंते तवणच्चिमाली पभासई केवल भारहं तु। एवायरिओ सूअसीलबुद्धिए, विरांयई सुरमज्झेव इंदो ॥ -दशवैकालिक-१४/२/९ ३. जहा ससी कोमुइजोगजुत्तो, नक्खत्ततारागण परिबुड़प्पा । खे सोहई विमले अब्भमुक्के, एवं गणी सोहइ भिक्खुमज्झे ॥ -वही १५/२/९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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