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________________ ११४ रमेशचन्द जैन या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी। यस्यां जागति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ।। २।६९ जो (परमार्थ तत्त्व) संसार के प्राणियों के लिए रात्रि है, उसमें संयमी जागता है तथा जिस (अविद्या में) संसार के प्राणी जागते हैं। वह परमार्थ तत्त्व को जानने वाले मुनि के लिए रात्रि है। आचार्य पूज्यपाद ने इसी अभिप्राय को निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया है व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागात्मगोचरे। जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे । समाधितन्त्र ७८ जो व्यक्ति (तन, धन आदि सम्बन्धी) व्यवहार विषय में सोता है, वह आत्म विषय में जागता है तथा जो व्यवहार में जागता है । वह आत्मविषय में सोता है। गीता में कहा गया है- जो समस्त कामनाओं को छोड़कर निःस्पृह होकर विचरता है, ममता तथा अहङ्कार से रहित वह शान्ति को प्राप्त होता है । इसकी टीका में शङ्कराचार्य ने कहा है कि जो संन्यासी पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं और भोगों को अशेषतः त्यागकर के दल जीवनमात्र के निमित्त ही चेष्टा करने वाला होकर विचरता है तथा जो स्पृहा से रहित हुआ है अर्थात् जीवनमात्र में जिसकी लालसा नहीं है, ममता से रहित है अर्थात् शरीर जीवनमात्र के लिए आवश्यक पदार्थों के संग्रह में भी यह मेरा है' ऐसे भाव से रहित है तथा अहङ्कार से रहित है अर्थात् विद्वत्ता आदि के सम्बन्ध से होने वाले आत्माभिमान से भी रहित है, ऐसा वह स्थितप्रज्ञ ब्रह्मवेत्ता ज्ञानी संसार के सब दुःखों की निवृत्ति रूप मोक्ष नामक परमशान्ति को प्राप्त होता है । ज्ञानार्णव में भी कहा गया है विरज्य कामभोगेषु विमुच्य वपुषि स्पृहाम् । निर्ममत्वं यदि प्राप्तस्तदा ध्यातासि नान्यथा ॥ ३॥२३ यदि तुम काम भोगों से विरक्त होकर तथा शरीर में स्पृहा को छोड़ कर निर्ममता को प्राप्त हुए हो तो ध्याता हो सकते हो, अन्यथा नहीं। निर्ममत्व के विषय में इष्टोपदेश में भी कहा है कि ममता युक्त जीव बँधता है तथा ममतारहित मुक्त हो जाता है, अतः समस्त प्रयत्न से निर्ममत्व का चिन्तन करो । गीता में कहा गया है कि कर्मों में अभिमान और आसक्ति का त्याग करके जो नित्यतृप्त है तथा आश्रय से रहित है। वह कर्म में प्रवृत्त होने पर भी कुछ नहीं करता है। समयसार में भी कहा है कि ज्ञानी सब द्रव्यों में राग को छोड़ने वाला है, इसलिए कर्मों के मध्यगत होने पर भी कर्मरूपी रज से उस प्रकार लिप्त नहीं होता, जिस प्रकार कीचड़ के बीच में पड़ा हुआ १. भगवद्गीता-शाङ्करभाष्य २०७१ २. गीता २।७१ शाङ्करभाष्य ३. इष्टोपरेश २६ त्यक्त्वा कर्मफलासगं नित्यतृप्तो निराश्रयः । कर्मण्यप्रवृत्तोऽभिनव किञ्चित्करोति स: ।। गीता ४।२० m " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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