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________________ आचार्य कुदकुद की आत्मदृष्टि : एक चिंतन १०५ भावरूप आत्मा का अनुभव करते समय आत्मा और शरीर में भेद अपने-आप स्थापित हो जाता है । भावकर्मचेतना स्वसंवेदनगोचर है । इसी स्वसंवेदनगोचरता से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है। स्वतः उसकी सत्ता का अवबोध उसे होता है। अपनी शद्धत भावकर्मों एवं द्रव्यकर्मों से संपूर्णतः रहित है। इसी अवस्था में केवलज्ञान प्रकट होता है । उसे परमात्मा कहा गया है। इसी दृष्टि से आचार्य ने ज्ञानचेतना का परिणमन करने वाले जीव को परमात्मा कहा है।' आत्मा चेतना और उपयोगमय है। आत्मा के चैतन्य मनुभव को उपयोग कहा है। हम इस प्रकार जान सकते हैं-वस्तु का स्वरूप जानने के लिए जीव का जो भाव है वह उपयोग है। उपयोग, ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग रूप दो प्रकार का है।३ आत्मा का उपयोग स्वयं में शुद्ध होता है। इसी उपयोग को मोह का उदय मलीन करता है। उसे अशुद्धोपयोग कहते हैं। शुभ और अशुभरूप अशुद्धोपयोग कर्मबंध का कारण माना गया है। अतएव आत्मा के साथ परद्रव्य के संयोग में यही उपयोग कारणभूत है। बंध से यक्त जीव शरीरधारी है। वह संसारी जीव कहलाता है। उसके विपरीत जो जीव कर्मबंध से मुक्त है और जिसने अपनी सहज स्वभाव शुद्धता प्राप्त कर ली है वही आत्मा संसार चक्र से विमुक्त है, सिद्धजीव है। संसारी और मुक्त जीवों का विभाजन जैन दार्शनिकों ने स्वीकार किया है। संसारी जीव के पुनः दो भेद देखने में आते हैं एक स्थावर और दूसरा त्रस । एकेन्द्रिय को स्थावर कहा है और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय को त्रस । त्रस जीव के देवगति, मनुष्यगति, तिर्यञ्चगति और नरकगति चार भेद हैं। संसारी जीव सतत संसरण करता रहता है और भावी गति का बंध वर्तमान पर्याय को छोड़ने के पूर्व ही कर लेता है। वर्तमान पर्याय की आयु का क्षय हो जाने पर तैजस और कार्मण शरीर के साथ दूसरी पर्याय अथवा गति में गमन करता है। इस प्रकार एक अवस्था छोड़ दूसरी पर्याय धारण करता है और दूसरी पर्याय को छोड़कर अन्य पर्याय को धारण करता है । इस प्रकार जीव उत्पाद और व्यय के साथ ही साथ जीव द्रव्य का ध्रौव्य बना हता है। आत्मा का यह संसारभ्रमण अनादि काल से चला आ रहा है। जैन दार्शनिकों ने सीव को अनादि अनन्त माना है। इसी अनादि चक्र का अन्त करने में जो जीव समर्थ है, वही मारमा परमात्मस्वरूप धारण करने में भी समर्थ है। - यदि जीव को अनादि न माना जाय तो अनवस्था दोष उत्पन्न होगा और उसे अनंत न मानने पर द्रव्य का ध्रौव्य गुण नष्ट हो जाएगा। संसारी और मुक्त जीवों में द्रव्य दृष्टि से देखा जाय तो कोई अंतर नहीं है। पर्याय दृष्टि से उनमें जरूर अंतर है। हाँ, यह अंतर वह अपनी पुरुषार्थ से मिटा सकता है। आत्मा परमात्मा बन सकता है। प्रत्येक जीव अपनेअपने विकास क्रम में अपने कर्म के स्तर के अनुरूप स्वयं ही ज्ञाता, भोक्ता और कर्ता होता है। जीव उपयोगमय, अमूर्त, कर्ता, भोक्ता, स्वदेहपरिमाण, संसारी, सिद्ध तथा ऊर्ध्वगमनवाला है। इन्ही विशेषणों से युक्त आत्मा का जो प्रतिपादन आचार्य ने किया, उससे अपने आप चार्वाक, वैशे१.पंचास्तिकाय : पृ० ३८-३९ २. सर्वार्थसिद्धि : २।८. उभय निमितवशादु' १३. पंचास्तिकाय : गा० ४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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