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________________ ८४ डा० लालचन्द्र जैन आचार्य विद्यानन्द' ने भी कहा है कि जिस प्रकार चित्रज्ञान में अनेक आकार होने पर भी ज्ञान की अपेक्षा से वह एक रूप । इसी प्रकार ज्ञान- दर्शन, सुख आदि की अपेक्षा से आत्मा अनेक रूप है और आत्म द्रव्य की अपेक्षा एक रूप है । यदि सुख रूप आत्मा से ज्ञान रूप आत्मा को भिन्न मान कर चित्र अद्वैतवादी आत्मा को एक नहीं मानेगा तो नील रूप आकार से पीत रूप आकार भिन्न होने के कारण चित्रज्ञान भी एक रूप सिद्ध नहीं होगा । एक बात यह भी है कि आत्मा को एक रूप मात्र मानने पर चित्रज्ञान को भी एक ही रूप मानना पड़ेगा । ऐसा मानने पर उसे चित्रज्ञान कहना असंगत हो जायेगा । धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक में भी चित्र - ज्ञान में अनेक आकारों का निराकरण करते हुए कहा है कि "क्या एक ज्ञान में अनेक आकार हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते हैं, किन्तु ज्ञान को अनेक आकार अच्छे लगते हैं तो इस विषय में हम क्या कर सकते हैं ?" दूसरे शब्दों में ज्ञान में चित्रता नहीं है फिर भी अज्ञानता के कारण ज्ञान में चित्रता मानने वालों का कोई क्या कर सकता है ? इसी प्रकार यह भी कहा गया है कि चित्र ज्ञान में एकाकारता भी सिद्ध नहीं होती है । अतः चित्रज्ञान में कथंचित् एकाकारता और कथंथित् अनेकाकारता सिद्ध होती है । इसीप्रकार आत्मा आदि तत्त्व भी कथंचित् एक रूप और अनेक रूप हैं । सुख आदि ज्ञान रूप नहीं हे : - चित्र - अद्वैतवादी मानते हैं कि सुख आदि ज्ञान रूप हैं किन्तु उनका यह कथन उचित नहीं है । क्योंकि सुख आदि की उत्पत्ति एकान्त रूप से (सर्वथा ) उसी सामग्री से नहीं होती, जिन से ज्ञान की उत्पत्ति होती है । सुख की उत्पत्ति सातावेदनीय नामक कर्म के उदय से होती हैं और ज्ञान की उत्पत्ति ज्ञानावरण नामक कर्म के क्षयोपशम से होती हैं अतः सुख और ज्ञान दोनों के कारण भिन्न-भिन्न है । इस प्रकार सुख आदि की तरह ज्ञान भी आत्मा रूप है । अतः ज्ञान और सुख आदि में कथंचित् भिन्नता और कथंचित् अभिन्नता होने पर भी यदि उन दोनों में एकता मानी जायगी तो रूप, आलोक आदि को भी ज्ञान रूप मानना पड़ेगा । इसलिए ऐसा मानना चाहिए कि ज्ञान और सुख आदि सर्वथा एक नहीं हैं । आत्मा की अपेक्षा वे एक हैं और अपने कार्य स्वरूप आदि की अपेक्षा अनेक भी हैं । प्रभाचन्द्र वादिदेवसूरि आदि तर्कशास्त्री कहते भी हैं कि - चित्र - अद्वैतवादियों ने सुख आदि को ज्ञान स्वरूप मानने में जो यह हेतु दिया था, कि सुख आदि ज्ञान उत्पन्न करने वाले अभिन्न हेतुओं से उत्पन्न होते हैं, उसके विषय में यह प्रश्न होता है कि सुख आदि में ज्ञान के अभिन्न हेतु से उत्पन्नत्व सर्वथा स्वीकार है अथवा कथंचित् ? यदि हेतु को सर्वथा माना जाय तो वह असिद्धदोष से दूषित हो जायेगा । क्योंकि सुख आदि साता - असाता वेदनीय के उदय से एवं माला, ता आदि निमित्तों से होते हैं । इसी प्रकार ज्ञान ज्ञानावरण के क्षयोपशम आदि से होता है । दूसरी बात यह है कि यदि सुख आदि का स्वरूप ज्ञान के स्वरूप से भिन्न है, तो अभिन्न हेतु से उत्पन्न होने के कारण यह हेतु असिद्ध सिद्ध होता है । जिनका भिन्न स्वरूप होता है, १. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १/१ द्वारिका १५९-१६१ पृ० ३५-३६ २. वही । ३. (क) विद्यानंद: अष्टसहस्रत्री, पृ० १२८ ( ख ) न्यायकुमुदचन्द्र, १ / ५, पृ० १२९ ( ग ) स्याद्वादरत्नाकर १/१६ पृ० १७८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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