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________________ डा० लालचन्द्र जैन . ८ ___ आकार चित्रज्ञान से सम्बद्ध है या असम्बद्ध ? ---आ० प्रभाचन्द्र एवं वादिदेवमूरि चित्राद्वैतवादियों से प्रश्न करते हैं कि नील आदि अनेक आकार चित्रज्ञान में सम्बद्ध होकर चित्रज्ञान के कथन के हेतु होते हैं अथवा उसमें असम्बद्ध होकर ही कथन के हेतु ( कारण ) हैं ? असम्बद्ध होकर तो वे आकार चित्रज्ञान के कथन के कारण नहीं हो सकते हैं, नहीं तो अतिप्रसंग का दोष हो जायेगा। क्योंकि कोई किसी से असम्बद्ध होकर भी किसी के कथन हेतु हो जायगा। ___अब यदि सम्बद्ध माना जाय तो बतलाना होगा कि किस सम्बन्ध से वे आकार चित्रज्ञान में सम्बद्ध होकर चित्रज्ञान के कथन में कारण हैं ? तादाम्य सम्बद्ध से वे सम्बद्ध है अथवा तदुत्पत्ति सम्बन्ध से? उन आकारों का चित्रज्ञान से तदुत्पत्ति सम्बन्ध से सम्बन्ध नहीं माना जा सकता है, क्योंकि समकालीन पदार्थों में ऐसी सम्बद्धता असम्भव है। तादात्म्य सम्बन्ध से भी सम्बद्धता नहीं बनती है क्योंकि अनेक आकारों से अभिन्न होने के कारण ज्ञान में एकरूपता के अभाव का प्रसंग आयेगा। जो अनेक आकारों से अभिन्न स्वरूप है वह वैसे ही अनेक है, जैसे अनेक आकारों का स्वरूप । चित्रज्ञान भी अनेक आकारों से अभिन्न है इसलिये उन आकारों में तादात्म्य सम्बद्धता नहीं हो सकती है। एक बात यह भी है कि अनेक आकारों में एक ज्ञानस्वरूप से अभिन्न ( अव्यतिरेक ) होने के कारण अनेकत्व नहीं बन सकता है, क्योंकि जो एक से अव्यतिरेक ( अभिन्न ) है वह अनेक नहीं है जैसे उसी ज्ञान का स्वरूप । अनेक रूप से माने गये नील आदि आकार भी एक ज्ञानस्वरूप से अभिन्न है, इसलिये वे अनेक नहीं है।' चित्रता अर्थ का धर्म है—चित्र-अद्वैतवादियों का यह कथन भी दोषपूर्ण है कि ग्रहणअग्रहण रूप विरुद्ध धर्मों का अध्यास होने से चित्रता अर्थ का धर्म नहीं है। प्रत्यक्ष से विरोध होने पर अनुमान प्रमाण की प्रवृत्ति नहीं होती है। अबाधित प्रत्यक्ष ज्ञान में चित्र के आकार बाहरी पदार्थों के धर्मरूप से प्रतिभासित होता है। अतः उसमें ज्ञानधर्मता मानना ठीक नहीं है। जो जिस धर्म से प्रतीत होता है वह उससे अन्य धर्म वाला नहीं है जैसे अग्नि के धर्म रूप से प्रतीत होने वाली उष्णता जल का धर्म नहीं है। चित्रता भी बाह्यार्थ के धर्मरूप प्रतीत होती है इसलिये वह भी ज्ञानधर्मरूप नहीं है। यदि कोई कहे कि चित्रता को का धर्म मानने पर ग्रहण और अग्रहण की उत्पत्ति कैसे बनेगी? इसका उत्तर यह है कि चित्र के ज्ञान (प्रतिपत्ति ) में अनेक वर्गों की प्रतिपत्ति कारण होती है । नीलभाग का ज्ञान होने पर भी पीत आदि भाग से अप्रतिपत्ति में चित्रता का ज्ञान न होना सिद्ध ही है । चित्रता को ज्ञान का धर्म मानने पर भी वह विरुद्ध हेतु के समान ही है। क्योंकि यहाँ प्रश्न होता है कि एक ज्ञान अनेक आकार वाला है अथवा उससे विपरीत ? एक चित्रज्ञान Radiotainduitra.. १. किञ्च एते आकाराः चित्रज्ञाने सम्बद्धाः सन्ताक्तद्वयपदेशहेतव असम्बद्धा वा, (क) न्या० कु० च० पृ० १२८ (ख) स्या० रत्ना०, १/१६, पृ० १७७, वही । २. तथाहि ज्ञानमेकमनेकारं तद्विपरीतं वा? (क) न्या. कु० च० पृ० १२८ (ख) स्याद्वाद रत्नाकर, पृ० १७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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