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________________ डा० लालचन्द्र जैन एक बात यह भी है कि जो प्रकाशक होता है उसमें पूर्वभाव, उत्तरभाव और सहभाव का नियम नहीं होता है । उदाहरणार्थ कहीं पर पूर्व में विद्यमान अपने पश्चात् होने वाले का प्रकाशक होता है । जैसे सूर्य बाद में उत्पन्न होने वाले पदार्थों का प्रकाशक होता है । कहीं पर पूर्व में विद्यमान पदार्थों का उनके पश्चात् होने वाला प्रकाशक होता है जैसे मकान के अन्दर स्थित घट आदि पदार्थों का बाद में होने वाला दीपक प्रकाशक होता है । कहीं पर सहभावी भी पदार्थों का प्रकाशक होता है । जैसे कृत्कत्वादि अनित्य आदि के प्रकाशक होते हैं। इसलिए प्रमाण पूर्वापर सहभाव नियम निरपेक्ष होकर वस्तु को प्रकाशित करता है क्योंकि वह सूर्य की तरह प्रकाशक है । अतः चित्राद्वैतवादियों का यह प्रश्न ठीक नहीं है कि प्रमेय से पूर्वकाल में होने वाला ज्ञान पूर्वकालवर्ती बाह्य अर्थ का प्रकाशक है अथवा उत्तरकालवर्ती अथवा सहभावी । अशक्य पृथक्करणत्व क्या है : - आचार्य विद्यानन्द, वादिराज, प्रभाचन्द्र आदि चित्रअद्वैतवादियों से प्रश्न करते हैं कि आपने जो यह कहा है कि बुद्धि (ज्ञान) के आकारों का पृथक्करण करना संभव नहीं है तो आप बतलायें कि ऐसा क्यों है ? अर्थात् अशक्य पृथक्करण क्या है ? क्या वे नीलादि आकार ज्ञान से अभिन्न हैं ? अथवा ज्ञान के साथ उत्पन्न नील आदि आकारों का ज्ञानान्तर ( दूसरे ज्ञान ) को छोड़कर उसी ज्ञान से अनुभव होना है ? अथवा भेदपूर्वक ( भेद करके ) विवेचन के अभावमात्र का होना ही अशक्य पृथक्करण है !" उपर्युक्त तीन विकल्पों में से प्रथम विकल्प - नील आदि आकार ज्ञान से अभिन्न होने के कारण उन्हें ज्ञान से अलग करना असम्भव है, ऐसा मानने पर हेतु भी साध्य के समान असिद्ध है । क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि नील आदि ज्ञान से अभिन्न हैं, क्योंकि वे उससे अभिन्न हैं । यहाँ पर साध्य 'ज्ञान से अभिन्नता' को ही हेतु बनाया गया है । अतः यह असिद्ध हेतु साध्य को सिद्ध नहीं कर सकता है । इसलिए इससे अशक्य पृथक्करण सिद्ध नहीं होता है । “सहोत्पन्न नील आदि ज्ञान का ज्ञानान्तर को छोड़कर उसी ज्ञान से अनुभव होना अशक्य पृथक्करणत्व है' ऐसा माना जाय तो अनेकान्तिक दोष होगा । जो हेतु पक्ष की तरह विपक्ष में रहता है वह अनैकान्तिक हेत्वाभास कहलाता है । चित्र - अद्वैतवादियों द्वारा दिया गया अशक्य विवेचनत्व हेतु इसलिए अनैकांतिक है कि सम्पूर्ण सुगत के ज्ञान के साथ उत्पन्न हुआ है और ज्ञानान्तर ( दूसरे ज्ञान ) का परिहार करके उसी सुगत के ज्ञान से ग्राह्य भी है। किन्तु उस सम्पूर्ण संसार के ज्ञान के साथ सुगत के ज्ञान का एकत्व नहीं है । अतः जो बुद्धि में प्रतिभासित होता है वह उससे अभिन्न है । यह कथन अनैकांतिक दोष से दूषित है । दूसरी बात यह है कि यदि सुगत के साथ सम्पूर्ण संसार का एकत्व ( एकपना ) मानने पर सुगत (बुद्ध) भी संसारी रूप हो जायेगा एवं सम्पूर्ण संसारी प्राणियों में सुगतपना (सुगतत्व) हो जायेगा । इस प्रकार सुगत को संसारी रूप में और असंसारी रूप में मानने पर ब्रह्मवाद मानना पड़ेगा । चित्राद्वैतवादी यह नहीं कह सकता है कि सुगत के साथ कोई उत्पन्न नहीं होता है, इसलिए सुगत के संसारी होने या संसारी प्राणियों का सुगत रूप होने का दोष नहीं आ सकता १. ( क ) न्यायकुमुदचन्द्र १५, पृ० १२७ (ख) प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ९५-९६ २. विपक्षेऽप्यविरुद्धबृत्ति रनैकान्तिकः । अनन्तवीर्यः प्रमेय रत्नमाला, ६/३० Co Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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