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________________ غرف डा० लालचन्द्र जैन प्रतीति होती है। स्वप्न अवस्था में होने वाले हाथी, घोड़ा आदि सम्बन्धी ज्ञान में बाह्य पदार्थ अनुरंजक नहीं होता है। अन्यथा स्वप्न ज्ञान और (प्रकाशित) जाग्रत ज्ञान में कोई भेद नहीं रहेगा। इसलिए सिद्ध है कि अर्थनिरपेक्ष ज्ञान ही अपनी सामग्री से अनेक आकार वाला होकर जाग्रत अवस्था में उसी प्रकार उत्पन्न होता है, जिस प्रकार स्वप्नदशा में उत्पन्न होता है। अनेक आकार वाले ज्ञान में एकत्व का विरोध नहीं है : यदि कोई चित्राद्वैतवादी से ऐसा पूछे कि अनेक आकारों के रूप में प्रतिभासित होने वाली बुद्धि में एकत्व किस प्रकार संभव है ? तो इसके उत्तर में चित्राद्वैतवादी कहते हैं कि बुद्धि (ज्ञान) में प्रतिभासित होने वाले अनेक आकारों का पृथक्करण नहीं होने से उसमें एकत्व का विरोध नहीं है।' अनेक आकारों से प्रतिभासित होने वाली बुद्धि (ज्ञान) एक ही है अनेक रूप नहीं है, क्योंकि वह बाह्य आकारों (चित्रों) से विलक्षण होती है। बाह्य आकारों से वह विलक्षण इसलिए है कि बाह्य चित्र ( नाना आकार ) का पृथक्करण संभव है, किन्तु बुद्धि के नील-पीत आदि आकारों का पृथक्करण संभव नहीं है अर्थात् 'यह बुद्धि (ज्ञान) है और ये नील-पीत आदि आकार हैं' इस प्रकार पृथक्-पृथक् विभाजन बुद्धि में नहीं हो सकता है।' चित्रपट आदि में चित्ररूपता की जो प्रतीति होती है उसमें ज्ञान धर्मता कैसे संभव है ? इसके उत्तर में चित्राद्वैतवादी कहता है कि उसमें अर्थ धर्मता नहीं बन सकती है। इसके अलावा एक यह भी विकल्प होता है कि चित्रपट आदि एक अवयवी रूप निरंश वस्तु है अथवा उसके विपरीत सांश?३ चित्रपट आदि को निरंश वस्तु मानने में दोष :-चित्र-अद्वैतवादी कहते हैं कि यदि चित्रपट आदि को एक अवयवी रूप निरंश वस्तु माना जायेगा तो नील भाग के ग्रहण करने पर पीत आदि भागों का ग्रहण नहीं होगा, क्योंकि उन पीत आदि भागों का उससे भेद हो जायेगा यह एक नियम है कि जिसके ग्रहण करने पर जो गृहीत नहीं होता है वह उससे भिन्न है । जैसे मेरु पर्वत के ग्रहण करने पर विन्ध्याचल गृहीत नहीं होता, इसलिए वे भिन्न-भिन्न हैं । इसी प्रकार नील भाग के ग्रहण करने पर पीत आदि भागों का ग्रहण नहीं होता है। एक बात यह भी है कि विरुद्ध धर्मों की प्रतीति (अध्यास) होने के कारण अवयवी में भी एकरूपता नहीं बन सकती है। जिसमें विरुद्ध धर्मों का अध्यास होता है. उसमें एकरूपता नहीं होती है. जैसे जल, अग्नि आदि । अवयवी में भी ग्रहण-अग्रहण रूप विरुद्ध धर्मों का अध्यास होता है, इस लिए उसमें भी एकरूपता नहीं है। यदि नील भाग पीत आदि भाग रूप है तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि पीत आदि के अग्रहण में नील आदि का भी अग्रहण होगा। क्योंकि जो जिस रूप होता है उसके अग्रहण में वह भी ग्रहीत नहीं होता है। जैसे पीत आदि के अग्रहण में उसके स्वरूप का भी ग्रहण नहीं होता है। नील भी पीत आदि रूप है, इसलिए पीत आदि अग्रहण में नील आदि का भी ग्रहण नहीं होगा। १. प्रमाणवार्तिक, २।२२० और भी देखें न्यायकुमुदचन्द्र पृ० १२५-१२६; स्याद्वादरत्नाकर पृ० १७३ २. (क) वही (ख) प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ९५ ३. न्या० कु० च०, पृ० १२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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