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________________ जैनधर्म में ईश्वर विषयक मान्यता का अनुचिन्तन 'ईश्वर' और 'ईश्वरवाद' (Theism) को समझने के लिये आवश्यक है कि इन शब्दों का प्रयोग किस अर्थ में होता है-यह समझा जाये । 'ईश्वर'' शब्द 'ईश्' धातु से निष्पन्न है जिसका अर्थ-स्वामी होना, आदेश देना, अधिकार में करना है। 'ईश्' धातु का विशेषण ही 'ईश्वर' है जो कि शक्ति सम्पन्नता की ओर इंगित करता है। अतः यह कहना औचित्यपूर्ण है कि जीव से परे जो भी सत्ता है वही 'ईश्वर' है। आज के समाज में 'ईश्वर' से सम्बन्धित सिद्धान्त 'ईश्वरवाद' का प्रयोग व्यापक एवं सीमित दोनों अर्थों में किया जाता है। व्यापक अर्थ में 'ईश्वरवाद' उस सिद्धान्त को कहते हैं जो ईश्वर को सत्य मानता है। इस अर्थ की परिधि में संबंधी सभी सिद्धान्त समाहित हैं। इस सिद्धान्त को स्वीकार करने वालों में न केवल भारतीय मनीषी हैं अपितु पाश्चात्य भी हैं, जिनमें विशेष रूप से उल्लेखनीय डेकाटें (Descartes) बर्कले ( Berkeley ), काण्ट (Kant), जेम्सवार्ड (James Ward), सी इ. एम जॉड (C. E. M. Joad), प्रिंगल पैटिसन (Prengle Patitisan) हैं। सीमित अर्थ में - ईश्वरवाद उस सिद्धान्त को कहते हैं जो कि एक व्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर का समर्थन करता है। इस सिद्धान्त का समर्थन विशेषत; जैनधर्म तथा अन्य सगुणोपासक धर्मों ने किया है। इसी मत के पक्ष में पाश्चात्य विद्वान् फ्लिण्ट (Flient) का कथन है कि "वह धर्म जिसमें एक व्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर आराधना का विषय रहता है-- ईश्वरवादी धर्म कहा जाता है। व्यक्तित्व रहित ईश्वर की अपेक्षा व्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर धार्मिक भावना की संतुष्टि करने में अधिक सक्षम है। धार्मिक चेतना के लिये आवश्यक है कि उपासक और उपास्य के मध्य निकटता रहे । इस नैकटय भाव को बनाये रखने के लिये यह अनिवार्य है कि उपासक के हृदय में उपास्य के प्रति श्रद्धा, आदर, और भक्तिभाव बना रहे ( जैन दर्शन एवं धर्म में सिद्धान्ततः भक्तिभाव को कोई स्थान नहीं है, किन्तु व्यावहारिक जगत् में जैन समाज तीर्थंकरों के प्रति भक्तिभाव से पूरित है) और इसी प्रकार उपास्य भी उपासक के लिये करुणा, क्षमा, दया और सहानुभूतिभाव से युक्त रहे । 'ईश्वर' उपास्य है और मनुष्य उपासक । ईश्वरवाद वस्तुतः व्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर की स्थापना करके उपासक मनुष्य का उससे निकट का संबंध स्थापित करता है । ईश्वर में यदि व्यक्तित्व का अभाव हो तो वह अपने उपासक के प्रति किसी भी प्रकार से अपने कारुणिक भाव को प्रकट नहीं कर सकता है। १. (अ) संस्कृत हिन्दी कोश-वा० व० आप्टे पृ० १७९-१८० (ब) वाचस्पत्यम्-द्वितीय भाग पृ० १०११-१०४८ ईश्वरवादी सिद्धान्त के प्रतिपादकों में-स्पिनोजा, जॉन कॉल्विन, जॉन ढोलेण्ड, तिण्डल, लाइबनिज, ब्रडले, रायस, हॉविसन, आदि के लिए (धर्म और दर्शन ) द्रष्टव्य-ईश्वर संबंधी मत, डा० रामनारायण व्यास, पृ० ९४-१३२ (ब) भारतीय ईश्वरवाद-पं० शर्मा ३. The Idea of God in Recent Philosophy. 8. Theistic religion is a religion in which the one personal and perfect God is the objective of worship--Flient p. 50 (Theism). ५. भारतीय दर्शन भाग १ पृ० ३०३-डॉ० राधाकृष्णन् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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