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________________ धर्मचंद जैन तो क्रमशः बाईस' एवं पच्चीस भेदों का प्रतिपादन करते हैं किन्तु अकलंक से प्रारंभ कर देवसूरि तक जैनदर्शन में जिन विशिष्ट एवं नवीन हेतुओं का प्रतिपादन हुआ है, वे हैं-कारणहेतु, पूर्वचरहेतु, उत्तरचरहेतु एवं सहचरहेतु । ये चारों नाम जैन दार्शनिकों की अपनी उपज है। 'कारणहेतु' प्राचीन न्यायवैशेषिक दर्शन में कल्पित पूर्ववत् हेतु का संशोधित रूप है एवं पूर्वचरहेतु मीमांसा श्लोकवार्तिक में कथित कृत्तिकोदय हेतु पर आधृत है। तथापि ये जैन दार्शनिकों द्वारा बलवत्तर रूप में प्रस्तुत एवं पुष्ट किये गये हैं। यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि जैन दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत हेतु लक्षण इन नवीन हेतुओं में कहाँ तक सामंजस्य बिठाता है। कारण हेतु कार्य से कारण का अनुमान जितना अव्यभिचरित देखा जाता है, उतना कारण से कार्य का अनुमान नहीं।" कारण से कार्य का अनुमान करना व्यभिचारयुक्त होता है। इसीलिए बौद्ध दार्शनिकों ने कारण हेतु को स्वीकार नहीं किया है। न्याय दार्शनिकों ने भी उत्तरवर्ती साहित्य में इसे महत्त्व नहीं दिया है। जैन दार्शनिकों ने कारण हेतु की मान्यता में दोष तो देखा किन्तु उसे समाप्त नहीं करके उसे निर्दिष्ट बनाने का प्रयास किया फलतः ऐसे कारण को हेतु कहा जो अप्रतिबंधक सामर्थ्य से युक्त हो अर्थात् वही कारण हेतु हो सकता है जिसके द्वारा कार्य की उत्पत्ति निश्चित हो किन्तु इस हेतु की सिद्धि में जिन उदाहरणों को प्रस्तुत किया जाता है वे सर्वथा व्यभिचार मुक्त प्रतीत नहीं होते। यथा"अस्त्यत्र छाया छत्रात्" अर्थात् 'यहाँ छाया है क्योंकि छत्र है'। इस उदाहरण में रात्रि में रखे छत्र से छाया का अनमान करना तथा इसी प्रकार बादलों से वर्षा का अनुमान करना व्यभिचरित देखा जाता है। ___कारण के द्वारा कार्य का अनुमान करने में अथवा कारण को हेतु मानने में सबसे बड़ी बाधा यह खड़ी खडी होती है कि कारण कार्य के अभाव में भी रह सकता है जब कि जैन दार्शनिकों के अनुसार हेतु साध्य के अभाव में नहीं रहता। अतः कारण को हेतु मानने में स्पष्टतः साध्य के साथ निश्चित अविनाभाविता रूप लक्षण का उल्लंघन होता है जो विचारणीय है। पूर्वचर हेतु-पूर्वचर कृत्तिका नक्षत्र को उत्तरचर शकटनक्षत्र के उदय का हेतु मानने में भी यही दोष आता है। कृत्तिकानक्षत्र शकटनक्षत्र के उदय के अभाव में भी उदित हो सकता है। अर्थात् साध्य शकटोदय के अभाव में भी हेतु कृत्तिकोदय देखा जाता है। १. परीक्षामुख, परि. ३; सूत्र ५३ से ८९ २. प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३१५४-१०९ ३. कृत्तिकोदयमालक्ष्य रोहिण्यासत्तिक्लप्तिवत्- मीमांसाश्लोकवार्तिक, अनुमानपरिच्छेद, कारिका १३ द्रष्टव्य-प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२, पृ० ३८९-३९९ एवं स्याद्वादरत्नाकर, भाग-३, पृ० ५८६-९४ नावश्यं कारणानि कार्यवन्ति भवन्ति । ६. परीक्षामुख. ३५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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