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________________ जैन दर्शन में हेतु लक्षण धर्मचन्द जैन* भारतीय दर्शन में जहाँ अनुमान प्रमाण की चर्चा है वहाँ हेतु की भी चर्चा है। हेतु शब्द का प्रयोग जैनागमों में प्रमाण के अर्थ में भी हुआ है, किन्तु यहाँ न्यायशास्त्र में प्रयुक्त उस प्रसिद्ध हेतु की चर्चा की जायेगी, जो साध्य का गमक होता है। भारतीय दर्शन में हेतु के स्थान पर लिंग, साधन, व्याप्य, गमक आदि शब्दों का भी प्रयोग होता रहा है। हेतु को साध्य का गमक स्वीकार करने में दार्शनिकों के मध्य कोई विवाद नहीं है किन्तु हेतु के स्वरूप का निर्धारण करने के संबंध में तीन परम्परायें हैं—१. त्रैरूप्य परम्परा, २. प्यच-रूप्य परम्परा, तथा ३. जैन एवं मीमांसक परम्परा । यद्यपि इनके अतिरिक्त द्विरूप२ षड्प एवं सप्तरूप हेतु का प्रतिपादन करने वाली परम्पराओं के भी संकेत प्राप्त होते हैं किन्तु ये परम्पराएं इतनी प्रसिद्ध न हो सकी जितनी त्रैरूप्य, पांचरूप्य एव अविनाभावित्व मात्र का प्रतिपादन करने वाली परम्परायें प्रसिद्ध हुईं। रूप्य परम्परा-इस परम्परा में हेतु के तीन रूप अथवा उसकी तीन विशेषतायें मानी गई हैं-पक्षधर्मत्त्व, सपक्षसत्त्व । एवं विपक्षसत्त्व । इस परम्परा के प्रतिपादक हैं-वैशेषिक, सांख्य एवं बौद्ध । वैशेषिकदर्शन में उसी हेतु को अनुमेय का अनुमापक स्वीकार किया गया है जो पक्ष-धर्मत्व, सपक्षसत्त्व एवं विपक्षव्यावृत्ति रूपों से युक्त हो, जैसाकि प्रशस्तपाद (५वीं सदी) ने कहा है यदनुमेयेन सम्बद्धं प्रसिद्धं च तदन्विते । तदभावे च नास्त्येव तल्लिगमनुमापकम् ॥५ अर्थात् जो लिंग अनुमेय से सम्बद्ध हो, सपक्ष में प्रसिद्ध हो तथा विपक्ष में विद्यमान न हो वही अनुमेय का अनुमापक होता है। यथा 'पर्वत में अग्नि है, क्योंकि वहाँ धूम है" इस १. शिक्षक शोधार्थी (टीचर रिसर्च फेलो ), संस्कृत विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपूर । पा० वि० शोध संस्थान स्वर्ण जयन्ती अधिवेशन में पुरस्कृत लेख स्थानांगसुत्र -"हेऊ चउबिहे पन्नत्ते तं जहा—पच्चक्खे अनुमान उवमे आगमे" सूत्र ३३८ न्यायवार्तिक, १-१-३४ हेतुबिन्दु, पृ० ६८ एवं हेतुबिन्दुटीका पृष्ठ २०५ ( गायकवाड ओरियन्टल सिरीज, बड़ौदा) षडलक्षणो हेतुरित्यपरे। त्रीणि चैतानि अबाधितविषयत्वं विवक्षितैकसंख्यत्वं ज्ञातत्वं च। न्यायविनिश्चयविवरण ( वादिराजकृत ) २१५५, पृष्ठ १७८-१८० यथा-"अन्यथानुपपन्नत्वादिभिश्चतुभिः पक्षधर्मत्वादिभिश्च सप्तलक्षणो हेतुरिति त्रयेणेति किम् ।" प्रशस्तपादभाष्यम्-अनुमानप्रकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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