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________________ डा० प्रेम सुमन जैन रचनाओं के अन्तःसाक्ष्य से स्थिति अधिक स्पष्ट हो सकेगी कि इस प्राकृत रचना पर पूर्ववर्ती कवियों का कितना प्रभाव है। __ कवि हरिराज के अनुसार उन्होंने सरस्वती का आदेश मानकर इस रचना का प्रणयन किया है और मलया सती का चरित्र अच्छे छन्दों ( पद्यों) में प्राकृत में कहा गया है। शील के माहात्म्य को प्रकट करने के लिए, सज्जनों और प्रियजनों के संयोगजन्य आनन्द हेतु सुश्रावक श्री हेमराज के लिए उनके आग्रह पर अपनी बुद्धि से कवि ने इसकी रचना की यद्यपि कवि ने प्राकृत भाषा में कथा लिखने का संकल्प किया है। किन्तु कई स्थानों पर उन्होंने संस्कृत के प्रयोग द्वारा कथानक को आगे बढ़ाया है । यथा विक्रीता भूरिद्रव्येण तेन सा पि महासती। वस्त्ररंजनकारेण क्रीता निःकरुणेन हि ॥ ५५४ ॥ एवं रतिं न लभते क्वापि लटुंती निसि भूतले । संदिष्टो दुष्टसर्पण निग्रतेन कुतोऽपि सा ॥ ६१३ ॥३ संस्कृत का प्रयोग सूक्तियों आदि के लिए भी किया गया है । यथा वरं मृत्यु न शीलस्य भंगो येनाक्षतं व्रतम् । देवत्वं लभते वा नरकं च क्षतं व्रतः ।। ४७८॥ तथा सतीनां शीलविध्वंसः हतो लोकेऽत्र निश्चितम् । अकीर्ति कुरुते काम तीव्रदुःखं ददाति च ।। ५८० ॥ ग्रन्थ की भाषा पर गुजराती आदि क्षेत्रीय भाषाओं का भी प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। कवि ने स्वयं ऐसे पद्यों को 'दोहडा' कहा है। महासती मलया के शील पर संकट आने के प्रसंग में कवि उस पर कुदृष्टि रखने वाले को लक्ष्य कर कहता है-- परि विय पिक्खिय जे पुरिससुरयसुहं इच्छंति।। ते रावण दुक्खं निव फल पचक्ख लहंति ।। ५८३ ॥ भदंतो मलयासईय चरित्रं सुछंद-पाइक्कए। अप्पाणे बहीमाण विय पडलं योहावणमेवाणिय ।। श्री हेमग्गह-कारण हरिकवि सीलस्स माहप्पड, चाहे सज्जण-संगमे पियजणेमेलं च आणंदणे ॥३८५।। २. मलयसुंदरीचरियं (पूना पाण्डुलिपि), पत्र पृष्ठ ३९ ३. वही, पत्र पृष्ठ ४४ ४. वही, पत्र पृष्ठ ४२ ५. वही, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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