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________________ ५४ डा० प्रेम सुमन जैन कविवंश परिवार मलयसुन्दरीचरियं की प्रथम पुष्पिका में कहा गया है कि 'श्रीमाल' के विशाल निर्मल कुल में श्री हंसराज के पुत्र ( अंगत कवि ) हरिराज ने सरस गाथाओं में विस्तार को संक्षेप में प्रस्तुत किया है श्री भाषस्य विशालवंशविमले श्री हंसराजांगजो। जे अत्थं हरिराइ गाह-सरसे संखेइ वित्थारिओ ॥ इससे ज्ञात होता है कि कवि हरिराज श्रीमाल वंशीय हंसराज के पुत्र थे। श्रीमाल कुल जैनपरम्परा में प्रसिद्ध कुल है। एक उल्लेख के अनुसार सं० १५५० में हंसराज नामक एक श्रावक हुए थे, जिनके भाई एकादे ने षडावश्यक अवचूरि की प्रति तैयार की थी। अतः १५-१६ वीं शताब्दी में हंसराज नाम प्रचलित था।। ... कवि हरिराज ने कहा है कि ज्ञान-दर्शन-चारित्र के गुणों की निधि और शील के लिए विख्यात मलया का जो चरित है वह प्रथम जन्म लेने वाले ( बड़े भाई ) हेम के लिए सुखकारी हो ।' आगे भी कवि ने सुश्रावक श्री हेमराज के लिए इस रचना को लिखने का तीन बार उल्लेख किया है सुश्रावक श्री हेमराजार्थ कवि हरिराज विरचिते। इससे स्पष्ट है कि हेमराज कवि के बड़े भाई ही नहीं अपितु इस रचना के निर्माण में प्रेरणादायक भी थे। इस तरह एक ही परिवार में हंसराज (पिता), हेमराज (भ्राता) एवं हरिराज ( कवि ) का होना स्वाभाविक लगता है। तीनों की नामराशि एक है और 'राज' शब्द प्रत्येक नाम के अन्त में जुड़ा हुआ है। यह हेमराज नाम भी १५-१६ वीं शताब्दी में प्रचलित था। बृहदनगर ( बडनगर ) में देवराज, हेमराज एवं पाटसिंह तीनों भाई श्रीमंत एवं सुश्रावक थे। देवराज ने सोमसुन्दरसूरि को सूरिपद प्रदान किया था। इस हेमराज और कवि के भ्राता सुश्रावक हेमराज में कोई सम्बन्ध बनता है या नहीं, यह अन्वेषणीय है। एक अन्य उल्लेख में पाटण के श्रीमाल कुल के हेमा का परिचय प्राप्त होता है, जिसका भाई देवो १५०८ में पातशाह महमूद के राज्य में राज्याधिकारी था। यह हेमा 'हेमराज' से सम्बन्धित नहीं हो सकता। क्योंकि इसका कुल तो श्रीमाल ही है, लेकिन पिता का नाम हंसराज न होकर मदनदेवसिंह है। १. जैनसाहित्यनो इतिहास, पैराग्राफ ६६७ २. णाण-दसण-चरिणोगुणनिही सीलस्स विक्खातओ । सो मलयाचरियं सुजम्म-पढमे हेमस्स सुक्खंकरो ॥ गा० १३१ ३. जैनसाहित्यनो इतिहास, पृ० ४५३ ४. वही, पृ० ५०३, टिप्पण संख्या ४७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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