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________________ ६४ रूपेन्द्र कुमार पगारिया श्रावक को अष्टमी-पूर्णिमा जैसी तिथियों में ही पौषध करना चाहिए, अन्य दिनों में नहीं। सामायिक का समय केवल दो ही घड़ी है। दो घड़ी से अधिक की सामायिक नहीं होती। साथ ही श्रावक को प्रातः तथा संध्या के समय ही सामायिक करनी चाहिए। दो से अधिक बार श्रावक को सामायिक नहीं करनी चाहिए। _कुछ लोग श्रावक को सूत्र पढ़ने या पढ़ाने का निषेध करते थे। शतपदीकार ने इस विषय में थोड़ी छूट देते हुए कहा - श्रावक आवश्यक नियुक्ति, चूणि तथा सूत्रों के अलापक (ग्रथांश) पढ़ सकता है। साधु भी श्रावक को मर्यादित एवं उनके उपयोगी शास्त्र पढ़ा सकता है। आवश्यक चूणि में बतायी गई विधि के अनुसार ही श्रावक को षडावश्यक करना चाहिए। साधु के उपाश्रय में स्त्रियों को खड़े खड़े ही वन्दन करना चाहिए। साधु के उपाश्रय में स्त्रियों को बैठना या घुटने टेक कर वन्दन करना शास्त्र विरुद्ध है। मूर्ति को वन्दन एक खमासमन से भी हो सकता है। श्रावक द्वादशावर्तरूप वन्दन सामान्य साधू को भी कर सकता है। प्रायश्चित्त का विधान साधु के लिए ही है यह कथन उचित नहीं। श्रावक भी साधु की तरह अपने पापों का प्रायश्चित्त कर सकता है। पर्वतिथिविषयक विचार तीर्थंकरों के जन्म, च्यवन, दीक्षा, ज्ञान एवं निर्वाणकल्याणक नहीं मनाने चाहिए । जो जिनकल्याणक मनाते हैं वे शास्त्र विरुद्ध कार्य करते हैं। आसोज और चैत्र मास के अष्टाह्निक पर्व न मनाये जायें। सांवत्सरिक प्रतिक्रमण आषाढ़ी पूर्णिमा से ५० वें दिन ही करना चाहिए। चातुर्मास विहार पूर्णिमा के दिन ही करना चाहिए तथा पूर्णिमा को ही पक्खी माननी चाहिए। चतुर्दशी को नहीं । लौकिक पंचांग नहीं मानना चाहिए। क्योंकि लौकिक पंचांग में जैन सिद्धान्तों के विरुद्ध अनेक बातें आती हैं। अधिक मास पौष या आषाढ़ को ही मानना चाहिए। अधिक मास में 'वीसापजूषण' अर्थात् भाद्रपदसुद ५ के दिन ही पर्युषण पर्व मनाया जाय । साधु के आचार विषयक-अपवाद । साधु को बाँस का ही दण्डा रखना चाहिए ऐसा एकान्त नियम नहीं है काष्ठ का भी रख सकते हैं। साधु को पर्व के दिनों में ही चैत्यवन्दन करना चाहिए । प्रतिदिन वन्दन के लिए चैत्य में जाने की आवश्यकता नहीं है । साधु को द्रव्य स्तव करने या करवाने का शास्त्र में निषेध है (जिन भगवान् के सामने नाटक, गीत, नृत्य आदि करबाना द्रव्यस्तव है) अर्थात् द्रव्यस्तव साधु को त्रिविध विविध रूप से नहीं करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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