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________________ रूपेन्द्र कुमार पगारिया मालोद्घाटन-विचार, साधु-प्रतिक्रमणविचार, इस प्रकार सात प्रश्नों का विशेष रूप से विवेचन किया है। साथ ही इसमें कुछ ऐतिहासिक घटनाओं की सूची भी दी है, जो बड़ी महत्त्व की हैं। शतपदी का सार और परिचय शतपदी ग्रन्थ में ११७ प्रश्नों के शास्त्रीय प्रमाणों के साथ उत्तर दिये गये हैं। इन्होंने आगम, टीका, भाष्य, चूर्णि, प्रकरण आदि सौ ग्रन्थों से उद्धरण लेकर अपनी बात को प्रमाणित किया है। उनके समय में उपलब्ध किन्तु वर्तमान में अनुपलब्ध ऐसे कई ग्रन्थों के उद्धरण इस ग्रन्थ में मिलते हैं। साथ ही कई ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध भी हैं, किन्तु अप्रकाशित स्थिति में ग्रन्थ भण्डारों की शोभा में अभिवृद्धि कर रहे हैं। साथ ही इस ग्रन्थ में संवत् के साथ कई ऐतिहासिक घटनाओं की भी सूची दी गई है। इतना ही नहीं वारहवीं सदी में प्रचलित जैन सम्प्रदायों की विभिन्न ५७ मान्यताओं का भी इसमें उल्लेख किया गया है, जिससे हमें उस समय की सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का पता लगता है । शतपदीकार ने मुख्यतः अपने ग्रन्थ में जिनप्रतिमा, जिनपूजा पर्व, तिथि, श्रावक एवं साधुओं के आचार एवं उनके अपवाद तथा उत्सर्गमार्गकी विस्तृत रूप से प्रश्नोत्तर पद्धति में चर्चा की है। इनके द्वारा सूचित समाचारी को पूर्णिमागच्छ, सार्धपूर्णिमागच्छ, आगमगच्छ, नाडोलगच्छ वल्लभीगच्छ के आचार्यों ने भी मान्यता दी थी। शतपदीकार ने जिन विषयों की विस्तृत रूप से चर्चा की है उनका संक्षिप्त सार यह हैप्रतिमा विषयक विचार १. प्रतिमा सपरिकर तथा अपरिकर दोनों वंदनीय हैं। २. प्रतिमा में वस्त्रांचल करना आवश्यक है। ३. साधुओं को प्रतिमा की प्रतिष्ठा नहीं करनी चाहिए । ४. दीपपूजा, फलपूजा तथा बीजपूजा नहीं करनी चाहिए। ५. बलि नहीं चढ़ाना चाहिए। ६. तण्डूल ( चावल ) से तथा पत्र से भी पूजा हो सकती है। पार्श्वनाथ की मूर्ति में सात फणे और सुपार्श्वनाथ की मूर्ति में पाँच फणे ही करानी चाहिए। ८. सामान्यतः जिन पूजा त्रिसंध्या में ही करनी चाहिए। कारणवश पूजा आगे-पीछे भी की जा सकती है।। ९. देवों की तरह ही श्रावक को भी चैत्य वन्दन करना चाहिए। १०. रात्रि में पूजा नहीं करनी चाहिए। ११ निश्राकृत चैत्य तथा अनिश्राकृतचैत्य दोनों ही वन्दनीय हैं। जैन परम्परा में एक पक्ष ऐसा भी था जो सपरिकर प्रतिमा को ही पूजनीय मानता था। परिकर रहित प्रतिमा को पूजनीय नहीं मानता था। शतपदीकार ने शास्त्रीय प्रमाणों से यह सिद्ध किया है कि प्रतिमा चाहे सपरिकर हो या अपरिकर, दोनों ही वन्दनीय हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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