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________________ યુગપુરુષને અર્પાજલિ जिस देश में होर्वे, सो देशोन्नति है । और बिना धर्म के देशोन्नति का होना असंभव है।" [ चि. प्र. पृ. १०८] જેન ભાઈઓ સ્વામિવાત્સલ્યને બહોળો અર્થ નહીં સમજી પિતાનું દ્રવ્ય ઘણે ભાગે જમણવારમાં ખચી, જ્ઞાને દ્વાર, જીર્ણોદ્ધાર, જ્ઞાનભંડાર અને નિરાશ્રિતાશ્રય વગેરે ઉત્તમ ક્ષેત્રોમાં નહીં વાપરી અધિક પુણ્યનું ઉપાર્જન કરતા નથી અને તેથી સંગીન પ્રકારને ધર્મ– ઉદ્યોત થતો નથી. તે નહીં થવાનું કારણ મહાત્માશ્રી આત્મારામજીએ નીચે પ્રમાણે લખેલ છે – " जैनी लोकों की दो इंद्रिय बहुत जबरदस्त हो गई है, इस वास्ते ज्ञानोद्धार, जीर्णोद्धार विगेरे बाबतों की कोई भी चिन्ता नहीं करता है, एक तो नाक और दुसरी जिह्वा, क्योंकि नाक के वास्ते अर्थात् आप की नामदारी के वास्ते लाखो रुपैये लगाके जिनमंदिर बनवाने चले जाते है और जिह्वा के वास्ते खाने में लाखो रुपैया खर्च करते है। चूरमे आदिक लड्डुओं की खबर लीये जाती है, परंतु ज्ञानोद्धार, जीर्णोद्धार करणे की बाबतो क्या जाने स्वप्न में भी करते होगे के नहीं ! कोइ पूछे जे युं जिनमंदिर अथवा स्वामिवात्सल्य करवामां पाप छे ? जवाबमां जिनमंदिर बनवाने का और स्वामीवात्सल्य करने का फल तो स्वर्ग और मोक्ष है, परंतु जिनेश्वर देव ने वो ऐसे कहा की जो धर्मक्षेत्र बीगडता होवे तीसकी सारसंभाल पहिले करनी चाहिये ॥" સ્વામિવાત્સલ્ય કરવાની રીત ઉક્ત ઉપકારી મહાત્માએ નીચે પ્રમાણે બતાવી છે – __“जिस गाम के लोक धनहीन होवे, और श्रावक का पुत्र धनहीन होवे तीसको कीसिका रोजगार में लगा के तीस का कुटुंब का पोषण होवे तैसे करे, यह स्वामिवात्सल्य है; परंतु या न समजना के हम बनीये लोको के जीमावनेरूप स्वामिवात्सल्य का निषेध करता है, परंतु नामदारी के वास्ते इस गाम के बनीयों ने उस गामके बनीयों को जीमाया, और उस गामवालो ने इस गाम के बनीयों को जीमाया परंतु साहम्मि को साहाय्य करने की बुद्धि से नहीं; तीस को हम स्वामिवात्सल्य नहीं मानते है, परंतु गधे खुरुकनी मानते है॥" -श्री जैनधर्म 4 , श्रावण १६५६, पृ. ७४-७५. જેનમત બહુ ફેલાયે નહિ તેનું કારણ પિતે એક સ્થળે બતાવે છે કે – ' मुसलमानों के राज में जैन के लाखों पुस्तको जला दिये गये है, और जो कुछ शास्त्र बच रहे है वे भंडारो में बंद कर छोडे है वे पडे पडे गल गये हैं, बाकी दोसो तीनसो वर्ष में तमाम गल जायगे। जैसे जैन लोक अन्य कामो में लाखो रुपये खरचते है तैसे जीर्ण पुस्तकों का उद्धार कराने में किंचित् नहि खरचता है, और न कोई जैनशाला बना के : 1१६. [ શ્રી આત્મારામજી Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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