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________________ जैन धर्म और उसके सम्प्रदाय इसके बाद एक और संघ स्थापित हुआ जो शायद उक्त दोनों संघोंके विवाद और कलहसे ऊबकर हुआ । उसने पिच्छी मात्रका त्याग कर दिया और इस कारण उसका नाम निःपिच्छिक रक्खा गया। माथुर-संघ भी उसे कहते हैं। इसी एक बातसे वह भी जैनाभास ठहरा दिया गया । एक संघ साधुओंके खड़े खड़े भोजन करनेका पक्षपाती है और दूसरा बैठकर । एक केवल इसी कारण मिथ्याती है कि वह सूखे हुए बीजोंमें जीव नहीं मानता। श्वेताम्बर-सम्प्रदायमें भी इसी प्रकारके छोटे छोटे मतभेदोंसे खरतर, तपागच्छ, आंचलिक, पौर्णिमीयक, कटुक आदि अनेक गच्छादिकोंकी उत्पति हुई है और उनमें परस्पर खूब कलह होता रहा है । कुपक्ष-कौशिकसहस्रकिरण, तपोमतकुट्टन, अंचलमत-दलन आदि ग्रन्थ इसीके निदर्शन हैं । इन सभी सम्प्रदायों, पन्थों और गच्छोंके प्रधान ग्रन्थकर्ताओंने अपने अपने विपक्षियोंपर इस बुरी तौरसे आक्रमण किया है कि उसे पढ़कर प्रत्येक शान्त शिष्ट मनुष्यके हृदयपर चोट लगे विना नहीं रहती । उसे जहाँ उनकी बालकी खाल निकालनेवाली सूक्ष्मबुद्धि और अपने विपक्षीको पछाड़नेके उनके दाव-पेचोंपर कौतुक होता है, वहाँ यह सोचकर क्षोभ हुए भी नहीं रहता कि क्या उन विद्वानोंको इतना भी ख्याल नहीं था कि अपनेसे भिन्न मत रखनेवालेको प्रेम और स्नेहसे ही अपना अनुयायी बनाया जा सकता है, गाली देकर या कठोर वचनोंसे नहीं । गालीके उत्तर में तो गाली ही मिलती है, समाधान नहीं होता । जिस तरह भारतवर्षके मध्यकालीन राजा, महाराजा अपनी वीरता और युद्धनिपुणताका परिचय आपस में ही लड़-भिड़ कर देते रहे, आपसी वैर-विरोधको भुलाकर कभी सम्मिलित रूपसे विदेशी आक्रमणकारियोंके सम्मुख नहीं हुए, ठीक वही हाल हमारे यहाँ के धर्माचार्योंका रहा । ये आपस में ही कलह-विसंवाद करते रहे, कभी यह सोचने की आवश्यकता ही नहीं समझी कि इससे हमारे मूल शासनकी शक्ति किस तरह छिन्न-भिन्न होती है और हम किस सीमा तक दुर्बल होते जा रहे हैं। लगभग हजार वर्षसे हमारे यहाँ विदेशी धर्म और संस्कृतियों के आक्रमण हो रहे हैं, परन्तु आप इन हजार वर्षों के साहित्यको देख जाइए, केवल जैन-साहित्यको ही नहीं, हिन्दूसाहित्यको भी; उसमें उनके विरुद्ध लिखे हुए शायद ही किसी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थका आपको पता लगे। परन्तु यहीं के जीवित जौर मृत दर्शनों और धर्मों के खंडन-मंडनके हजारों ग्रन्थोंसे हमारे भंडार भरे पड़े हैं। जैनधर्मके आचार्योंने बौद्धो, नैयायिकों, मीमांसकों, २००:. [ श्री आत्मारामजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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