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________________ जैन धर्म और उसके सम्प्रदाय अलग पन्थ बन जाते थे और उनकी अधिकांश शक्ति परस्पर विवाद करने में खर्च होती थी । एक मनुष्यके विचार दूसरेसे नहीं मिलते, एक ही वस्तुको दो मनुष्य पृथक् पृथक् दृष्टिकोणसे देखते हैं, एक ही कही हुई या लिखी हुई बातको दो मनुष्य दो तरहसे समझते हैं । ऐसी दशामें मतभेद होना जरा भी अस्वाभाविक नहीं है और न उनके होनेमें कोई आश्चर्य ही है। मतभेदोंसे कोई हानि भी नहीं होती, यदि मतभेद रखनेवालोंमें पर-मत-सहिष्णुता भी हो और वे दुराग्रही बनकर अपने अपने जुदा जुदा दल बनाने के लिए और अपनेसे भिन्न मत रखनेवालोंको · मिथ्यात्वी' आदि पदवियोंसे भूषित करनेके लिए कटिबद्ध न हो जाएँ। बौद्ध साहित्य में एक घटनाका वर्णन मिलता है कि जिस समय स्वयं बुद्धदेव मौजूद थे, उस समय उनके साथ ही रहनेवाले शिष्योंमें विवाद खड़ा हो गया कि अमुक विषयमें भगवान (बुद्ध) ने जो कहा है उसका क्या अर्थ है ? और आखिर इस विवादने कलह का उग्र रूप धारण कर लिया । बुद्ध भगवानको इस बातसे बड़ा परिताप हुआ कि जब मेरी उपस्थितिमें ही शिष्य-समूह इस प्रकार झगड़ता है, तब आगे चलकर क्या होगा ? भगवान् महावीरके सम्बन्धमें भी इसी प्रकारकी एक घटनाका उल्लेख साम-गामसुत्तमें मिलता है। चुन्द श्रमण पावा( पुरी ) में वर्षावास करके सामग्राममें भिक्षु आनन्दसे जाकर मिले और बोले-भन्ते ! निगंठ नागपुत्त ( भगवान महावीर ) अभी अभी पावामें कालवश हुए हैं। उनके मरने पर उनके निगंठोंमें (जैन-साधुओंमें ) मानो युद्ध ही हो रहा है। वे दो भाग होकर भंडन ( कलह-विवाद ) करते और एक दूसरेको मुखरूपी छुरीसे छेदते फिरते हैं। तू इस धर्म-विनय ( साधुओंके आचार ) को क्या जानेगा ? तू मिथ्यारूढ है, मैं सत्यारूढ हूँ, आदि । मतभेद किस प्रकार प्रारंभ होते हैं और कितनी जल्दी उनका प्रारंभ हो जाता है, उस घटनायें इस बातको अच्छी तरह प्रकट करती हैं । धर्मसंस्थापकों या तीर्थकरोंकी उपस्थितिमें ही इनका बीज पड़ जाता है, जो उनके व्यक्तित्व के प्रभावसे तथा अनुकूल खाद्यके अभावसे उनके जीते जी तो उग नहीं पाता; परन्तु उनके आँखोंके ओझल होते ही उसमें अंकुर निकलने लगते हैं और धीरे धीरे वे विशाल वृक्ष का रूप धारण कर लेते हैं। सामगामसुत्तमें वर्णित उक्त घटनासे अनुमान होता है कि भगवान महावीरके निर्वाण होते ही उनके शिष्यों में दो मत हो गये थे और शायद वे ही आगे चलकर श्वेताम्बर और दिगम्बररूपमें परिणत हुए जान पड़ते हैं। इस मतभेदका मूल वस्त्र रखने [श्री आत्मारामजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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