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________________ श्री. अगरचंद नाहटा वास्तव में आर्य महागिरिजी का नाम अवश्य होना चाहिये क्योंकि उनका युगप्रधानत्व काल भी ३० वर्ष का है लेकिन उन के नाम न देने का कारण यह हैं कि :- (१) उन्हो नें अपनी विद्यमानता में ही अपना साधु समुदाय आर्य सुहस्तीजी को सुर्पुद कर दिया था और आप गच्छ की निश्रा में रहते हुए भी जिनकल्प का अनुकरण करते थे । गण समर्पण के साथ ही उन्होनें युगप्रधान पद भी आर्य सुहस्ती को समर्पण कर दिया था इसीसे पीछे के पट्टावलीकारों ने उनका नाम न देकर क्रमिक नम्बर में आर्य सुहस्ती का ही नाम रखा । (२) दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि परम्परा नामानुक्रम दो प्रकार से लिखा जाता है: (१) युगप्रधान नामानुक्रम (२) गुरुशिष्य नामानुक्रम । आर्य महागिरि और आर्य सुस्त दोनों स्थूलभद्रजी के ही शिष्य थे अतः गुरुशिष्य सम्बंध से दोनों का नम्बर एक ही होता है, और युगप्रधान नामानुक्रम से भिन्न २ नम्बर दिये जाते है पर इस पट्टावली में दोनों प्रकार देखे जाते हैं; जैसे:- संभूतिविजयजी के पश्चात् भद्रबाहुस्वामी का नम्बर भिन्न दे दिया है ! (३) प्रस्तुत पट्टावली के नं. १४ तक के आचार्यों के नामानुक्रम देवर्द्धि क्षमाश्रमणजी की गुर्वावली के अनुसार ही है लेकिन नम्बरों में कइ नाम कम कर दिये है । वास्तव में यहां तक का संशोधित पट्टानुक्रम इस प्रकार होना चाहिये : युगप्रधानत्व काल ८ १ आर्य सुधर्मा २ जंबू ३ प्रभव ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १० १३ शताब्दि ग्रंथ ] Jain Education International "" " शय्यंभव यशोभद्र संभूतिविजय ,, भद्रबाहु ,, स्थूलभद्र महागिरि "" "" 22 "" सुहस्ती 33 " सुस्थित " "" सुप्रतिबद्ध इंद्रदिन १२+८=२० ४४ ११ २३ ५० ८ १४ ४५ ३० ४६ निर्वाण काल वीरात् २० ६४ ७५ ९८ १४८ १५६ १७० २१५ For Private & Personal Use Only २४५ २९१ कोटिकगण .: १८९ : ० www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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