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________________ जैन धर्म और लोकभ्रान्ति किये हैंx तीसरा कोई योगसिद्ध या नित्यसिद्ध नहीं माना गया; परन्तु कतिपय दार्शनिक विद्वानों ने जीव के बद्ध, मुक्त और नित्यसिद्ध ये तीन भेद बतलाये हैं; यथा(१) तत्र जीवा बद्धा योगसिद्धा मुक्ताश्चेति त्रिविधाः । [ ब्रह्मसूत्रश्रीभाष्य २।२।३३ ] (२) जीवास्तिकायस्त्रेधा बद्धो मुक्तो नित्यसिद्धश्चेति तत्रार्हन् मुनिनित्यसिद्धः इतरे केचित्सा धनैर्मुक्ताः अन्ये बद्धा इति भेदः । [ शांकरभा. २।२।३३ की आनन्दगिरि व्याख्या ] (३) जीवास्तिकायस्त्रिविधः-कश्चिद् जीवो नित्यसिद्धोऽर्हन् मुख्यः केचित्साम्प्रतिक मुक्ताः केचिद् बद्धा इति [ शां. भा. २।२।३३ की रत्नप्रभाटीका ] (४) जीवास्तिकायस्त्रिधा बद्धो मुक्तो नित्यसिद्धश्चेति। [शां. भा. २।२।३३ की भामतीव्याख्या प्रस्तुत पाठों से रामानुजाचार्य, वाचस्पति मिश्र और आनन्दगिरि आदि वैदिक विद्वानों का जीवात्मा के विषय में एकही-सा विचार है; परन्तु जबतक इस विचार का समर्थक कोई प्रामाणिक जैन लेख नही मिलता तबतक हम तो इसे भूल की ही श्रेणि में स्थान देंगे। अन्त में हम अपने पाठकों से इतना और निवेदन करते हैं कि स्वर्गीय जैनाचार्य श्री विजयानन्दसूरि-उर्फ आत्मारामजी महाराज ने स्वामी दयानन्दजी की बड़ी आलोचनाओं का समाधान करते हुए उन्हे जैनधर्म से अनभिज्ञ बतलाया है। प्रस्तुत निबन्ध भी उक्त आचार्यश्री के इसी विचारों को पल्लवित करने के लिये समयाभाव से संक्षेपरूप में विचारशील पाठकों की सेवा में अर्पण किया गया है । 00000000000000000000000000000000000000000000000000000 9000 __ हम अब सुज्ञजनों से नम्रतापूर्वक यह विनंति करते है कि एक बार जीसने धर्म पीछानना होवे सो जैनमत के शास्त्र पढ़े वा सुने तो उसको सर्व मालुम हो जावेगा। जैनमत का शास्त्र और तत्त्वबोध अच्छीतरे जाने सुने विना मन में संकल्प-विकल्प कर के कोई कीसी बात को अपनी समज मुजब सच्ची और जूठी माननी वो अज्ञानता का एक चिह्न है । -श्रीमद् आत्मारामजी-अज्ञानतिमिरभास्कर प्रथम खंड का अंतिम निवेदन । 00000000000000 x(१) दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता तं जहा सिद्धा चेव असिद्धा चेव-स्थानांग स्था.२३.१ सू० १०१ (२) संसारिणो मुक्ताश्च । [ तत्त्वार्थ अ. २ सू० १० ] [ श्री आत्मारामजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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