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________________ जैन धर्म और लोकभ्रान्ति जैन जिसके एक मात्र कौपीन--लंगोटी--लगी हुई है, मलिन शरीरवाला, पिशाच की तरह भयंकर, अर्हन् अर्हन् कहता हुआ अपने शिष्यों के समेत जगद्गुरु शंकरस्वामी के पास आकर कहता है-हे स्वामिन् ! सुनो ! देखो, मेरा मत कितना सुगम और सुन्दर है । जिनदेव सब को मुक्ति देनेवाला है। वही प्रकाशमान होने से देव और सर्व प्राणियों के हृदयकमल में जीवरूप से स्थित है । इसप्रकार के ज्ञान मात्र से ही शरीर का नाश होने पर मुक्ति हो जाती है और जिनदेव तो नित्यमुक्त हैं। तब शंकरस्वामी ने कहा, अरे मूर्ख जैन ! यह तूं क्या कहता है ! विदेह का विनाश ही जीवात्मा की मुक्ति है तथा............प्रतिजीव एक २ शरीर है इसलिये शरीर के विनाश होने पर जीव भी मुक्त हो जाता है।" इस के अनन्तर शंकरस्वामी उसे उपदेश करते हैं तब वह " शिष्यों के सहित अपने वेष और भाषा का परित्याग करके वणिक्-वाणिया-बन जाता है और परमगुरु शंकरस्वामी को प्रतिदिन चावलादि वस्तुओं को लाकर देता हैं " इत्यादि। उपर्युक्त उदाहरण से स्वामि आनन्दगिरिजी के विषय पाठक चाहे कुछ ही कल्पना करें, उनके उक्त लेख में सामुदायिकता का चाहे कितना ही गहरा रंग चढ़ा हुआ हो परन्तु हमारा आत्मा तो यही मानता है कि अहो ! वे जैन सिद्धान्तों से बिलकुल नही तो अधिक अंश में अनभिज्ञ थे। अन्यथा वे एक जैन व्यक्ति के मुख से जैन सिद्धान्त के विपरीत सिद्धान्त का भाषण न कराते । इसके अतिरिक्त विद्यारण्य स्वामिप्रणीत शंकरदिग्विजय में इसप्रकार के सम्वाद का बिलकुल उल्लेख नहीं । उसमें तो केवल जीव अजीव आदि तत्त्वों का उल्लेख करके “ जीव को शरीरव्यापी" जैन मान्यता पर विचार किया गया है। दूसरी श्रेणि—में, श्री माधवाचार्यप्रणीत सर्वदर्शनसंग्रह के भाषा अनुवादक पंडित उदयनारायणसिंहजी तथा गोविन्दसूरिजी हैं । सर्वदर्शनसंग्रह का इन दोनों सज्जनों ने हिन्दी भाषा में अनुवाद किया है इन में पहले अनुवादक उदयनारायण सिंहजी हैं, दूसरे अनुवादक पुनर्भव इति स एव दीव्यते इति देवः सर्वप्राणिहृत्पुंडरीकेषु जीवरूपेण व्यवस्थित इति ज्ञानमात्रेण देहपातानन्तरं मुक्तस्तस्य नित्यमुक्तिस्वरूपत्वात् । परमगुरुः पठति-भो जैन ! किमुक्तं भवतामूढ़तरेण जीवस्य देहनिवृत्तिरेव मुक्तिरिति.........तस्मादेको देहः प्रतिजीवस्य तत्पातानन्तरं जीवस्यापि मुक्तिरिति............एवं श्रीमद्भिरुक्तो जैनः शिष्यैः सह स्ववेषभाषाविमुक्तः परमगुरूणां प्रतिदिनं तण्डुलादिबसवाकर्षणशील: वणिक्जनोऽभवत् । [शंकरविजय पृ. २७ पृ. १५४-१५६, एशियाटिक सोसाईटी-कलकत्ता] __- देखो शंकरदिग्विजय आनन्दाश्रम-पूना, पृष्ठ ५७०-७१ । [ श्री आत्मारामजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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