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________________ अहिंसा और विश्वशांति अन्तरकलह फैल रहा हो, सरकार की सत्ता निर्बल हो गई हो और सुसज्जित सैन्य हिम्मत हार बेठी हो तभी इसके परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं । इस सब का मूल असत्य और अहिंसा में है। जो लोग इस तरह की राक्षसी परिभाषा बोलते हैं वे भविष्य के चकाचौंध में पड़कर वर्तमान का बल खो बैठते हैं । इस जंगली प्रवृत्ति का मुकाबला करने के लिये ही हमें अपने में अहिंसक प्रवृत्ति जागृत रखनी चाहिये । इसके द्वारा धीरे २ राष्ट्रीय जीवन, स्वातंत्र्य और शक्ति की प्रतिमूर्ति बन जाता है। जब पीड़ित पीडकों द्वारा उत्पीड़ित कीये जाते हैं, पीड़ित उनके अत्याचारों को सहन करते जाते हैं तब वे पीड़ित भी कायरता के कायल बनजाने से हिंसक हैं जैसे वे पीड़क क्रोधादि के आवेश में आकर आत्मा के स्वाभाविक अहिंसा स्वभाव का हनन करने तथा दूसरों पर अनुचित अत्याचार करने से हिंसक कहे जाते हैं । जैनधर्म तो यहांतक कहता है कि अत्याचारों तथा अन्यायों का सहन करना मानो उनको बढ़ाना है और स्वयं हिंसक बनना है । अतः अत्याचार तथा अन्याय का प्रतिरोध हमेशा करते रहना चाहिये, क्यों कि अत्याचारों के सहन से कायरता और कायरता से पीड़ा का प्रादुर्भाव होता है और जहाँ पीड़ा है वहाँ हिंसा है। अहिंसा नहीं । अहिंसक पुरुष कायरता का उपाश्रय कभी नहीं हो सकता, अगर होगा तो वह अहिंसक नहीं हिंसक है, क्यों कि कायरता को उपाश्रय देकर उसने अपनी आत्मा के सदसद्विवेकादि गुणों का घात किया-हिंसक बना । अहिंसक पुरुष कभी भी दूसरों के अमानुषिक अत्याचारों को सहन नहीं करेगा। वह स्वपर अन्याय के प्रतिरोध करने के लिये सदा तैयार रहेगा । वह आत्मिक विकास की प्राप्ति करेगा और आदर्श पुरुषत्व को प्राप्त कर दीन दुर्बलों के भयभीत अन्तःकरण की क्लेश परम्परा के मूलोच्छेद करने में समर्थ होगा। अहिंसा की परमोपासना करनेवाले, वीराग्रणी प्रसिद्ध सम्राट भरत ने अपने साम्राज्य में अत्याचारियों के निग्रहार्थ प्राणदण्ड तक का विधान किया था । अहिंसा के इस समीचीन भाव को न समझ कर ही पृथ्वीराज ने मुहम्मदगौरी को छोड़कर देश को परतंत्र बनाया था । आचार्य सोमदेव के इस वाक्य को सुनिये:-- यः शस्त्रवृत्तिः समरे रिपुः स्यात् , यः कण्टको वा निजमण्डलस्य । अस्त्राणि तत्रैव नृपाः क्षिपन्ति, न दीनकानीनशुभाशयेषु ॥ य० ति. अर्थात् जो शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होकर समराङ्गण में युद्ध करने के अभिमुख हो अथवा देश एवं प्रजा की उन्नति में बाधक हो-क्षत्रिय वीर उन्हीं आततायिओं के ऊपर अस्त्र उठाते हैं-दीनहीन और साधु पुरुषों के ऊपर नहीं। इस से स्पष्ट हो जाता है कि दीन [ श्री आत्मारामजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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