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________________ श्री. दरबारीलाल जैन अपने अनुचित स्वार्थ के लिये दूसरों को कष्ट न पहुँचना अहिंसा है । हम नित प्रति के व्यवहार से यह सहज में समझ सक्ते हैं कि प्राणी मात्र को अपना आयुष्य प्रिय है, अपना घात किसी को प्रिय नहीं है, सभी सुख से रहना पंसद करते हैं, दुःख को वे नहीं चाहते-तब हमें क्या अधिकार कि हम निरपराध दूसरे प्राणियों को सतावें ? उन्हें दुःख दें ? अगर अहिंसा के इस श्रेष्ठभाव को संसार का प्रत्येक मानव समझ कर अपने जीवन में उतार ले तो मानव जगत् में अत्याचारों एवं अन्यायों की सृष्टि ही न हो। जैनधर्म की भित्ति अहिंसा की नींव पर स्थित है । जैनधर्म के प्रवर्तकों ने अहिंसा के अंग प्रत्यंग का सूक्ष्म से सूक्ष्म और विस्तृत विवेचन किया है और यह सिद्ध किया है कि अहिंसा का परिपालन सभी परिस्थितियों में-क्या धार्मिक ? क्या सामाजिक ? क्या राजनैतिक एवं राष्ट्रीय-किया जा सकता है। कोई बाधा उपस्थित नहीं हो सकती । अहिंसा तत्त्व की सम्यग् आराधना से जब साधारण आत्मा भी परमात्मा हो सकता है-कर्मबन्धन से छूट सकता है-तब अन्य लौकिक कार्यों की सफलता प्राप्त होना असंभव नहीं है। ___ आन्तरिक तथा बाह्य शत्रुओं पर विजय पानेवाले ( वीर ) व्यक्तियों की समष्टि को जैन ( अन्तःबाह्यारातीन् जयतीति जिनः तदनुयायिनो जैनाः ) कहते हैं और ऐसे वीर व्यक्तियों का धर्म ही जैन धर्म है। हमें ऐसे धर्म को सत्य एवं वैज्ञानिक कहने में जरा भी संकोच न होगा । यह दूसरी बात है कि वर्तमान जैन समाज के आश्रित रहनेवाला जैनधर्म "जैनधर्म" पर के उपरोक्त यौगिक अर्थ से शून्य हो-कुछ विकृति आगई होक्यों कि वर्तमान जैन समाज ने अपने अतीत गौरव को खो दिया है, संकीर्णता एवं अज्ञानता तथा भीरुता के पराधीन हो गई है और मैं मैं तूं तूं की कठिन दल-दल में फंसकर अपना सत्यानाश करती जा रही है-अस्तु । जब जैन धर्म की दीवाल इतनी सुदृढ़ एवं विशाल है तब उसकी नीब (मूल) अहिंसा विशेष सुदृढ़ तथा विशाल होनी ही चाहिये । जैनधर्म के सभी सिद्धान्त-आचार-विचार-अहिंसा तत्त्व के ऊपर रचे गये हैं । वैसे तो भारतीय सभी धर्मों में अहिंसा तत्व की कुछ न कुछ रूपरेखा खींची गई है किन्तु उनका अहिंसा तत्त्व स्थूल जगत् तक सिमित है-स्थूल प्राणियों में ही परिसमाप्त हो जाता है-जब कि जैनधर्म का अहिंसा तत्त्व स्थूल जगत् के परे सूक्ष्म जगत् तक जाता है। तात्पर्य यह कि जैनों की अहिंसा कायिक न रह कर वाचिक एवं मानसिक होकर आत्मिक होकर रहती है । इस धर्म के प्रवर्तकों ने इस का कथन मात्र ही नहीं किया बल्कि अपने जीवन में व्यवहार्य एवं आचरणीय बनाया है । 'शताब्दि ग्रंथ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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