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________________ प्राचीन मथुरा में जैनधर्म का वैभव ग्रामिक ( ग्रामणी) जयनाग की कुटुम्बिनी और ग्रामिक जयदेव की पुत्रवधू ने सं० ४० में शिलास्तम्भ का दान किया । आर्या श्यामा की प्रेरणा से जयदास की धर्मपत्नी गूढा ने ऋषभ प्रतिमा दान में दी । श्रमणश्राविका बलहस्तिनी ने माता पिता और सासससुर की पुण्यवृद्धि के हेतु एक बड़े (९४३x १ ) तोरण की स्थापना की । कंकाली टीले के दक्षिणपूर्व के भाग में डॉ. बर्जस की खुदाई में एक प्रसिद्ध सरस्वती की प्रतिमा प्राप्त हुई थी जिसे एक लोहे का काम करनेवाले ( लोहिककारुक ) गोप ने स्थापित किया था । इसी स्थान पर धनहस्ति की धर्मपत्नी और गुहदत्त की पुत्री ने धर्मार्था नामक श्रमणा के उपदेश से एक शिलापट्ट दान किया जिस पर स्तूप की पूजा का सुन्दर दृश्य अंकित है [E.I Vol. I, no. 22 ] जयपाल, देवदास, नागदत्त, नागदत्ता की जननी श्राविका दत्ता ने आर्य संघसिंह की निर्वर्तना मान कर वर्धमान प्रतिमा का ई० ९८ दान किया । अन्य प्रधान दानदात्री महिलाओं में कुछ ये थीं— सार्थवाहिनी धर्मसोमा ( ई० १०० ), कौशिकी शिवमित्रा जो ईस्वी० पूर्व काल में शकों का विध्वंस करनेवाले किसी राजा की धर्मपत्नी थी [ E. I. V1. I, no. 32 ], स्वामी महाक्षत्रपसुदास के राज्यसंवत्सर ४२ में आर्यवती की प्रतिमा का दान देनेवाली श्रमणश्राविका अमोहिनी [E. I. Vol II, Ins. no 2 ], नर्तक फल्गुयश की धर्मपत्नी शिवयशा, भगवान् अरिष्टनेमि की प्रतिमा का दान करने वाली मित्रश्री, एक गन्धिक की माता, बुद्धि की धर्मपत्नी ऋतुनन्दी जिस ने सर्वतोभद्रका प्रतिमा की स्थापना की, श्राविका दत्ता जिसने नन्द्यावर्त अर्हत की स्थापना देवनिर्मित बोद्ध स्तूप में की, भद्रनन्दी की धर्मपत्नी अचला और सब से विशिष्ट तपस्विनी विजयश्री जो राज्यवसु की धर्मपत्नी, देविल की माता और विष्णुभव की दादी थीं और जिन्हों ने एक मास का उपवास करने के बाद सं० ५० ( १२८ ई० ) में वर्धमान प्रतिमा की स्थापना की । इन पुण्यचरित्र श्रमण श्राविकाओं के भक्तिभरित हृदयों की अमर कथा आज भी हमारे लिए सुरक्षित है और यद्यपि मथुरा का वह प्राचीन वैभव अब दर्शनपथ से तिरोहित हो चुका है तथापि इन के धर्म की अक्षय्य कीर्ति सदा अक्षुण्ण रहेगी । वस्तुतः काल प्रवाह में अदृष्ट होनेवाले प्रपञ्चचक्र में तप और श्रद्धा ही नित्य मूल्य की वस्तुएँ हैं । जैन तीर्थंकर तथा उनके शिष्य श्रमणों ने जिस तप का अंकुर बोया उसी की छत्रछाया में सुखासीन श्रावक-श्राविकाओं की श्रद्धा ही मथुरा के पुरातन वैभव का कारण थी । : ९६ : Jain Education International For Private & Personal Use Only [ श्री आत्मारामजी www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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