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________________ __ प्राचीनमथुरा में जैनधर्म का वैभव ऐसा ही एक समय वह था जब मथुरा में ईस्वी सन् से लगभग चार-पांच शताब्दि पूर्व, जैन धर्म के स्तूपों की स्थापना हुई । आज कंकाली टीले के नाम से जो भूमि वर्तमान मथुरा संग्रहालय से पश्चिम की ओर करीब आध मील दूर पर स्थित है, वह पवित्र स्थान ढाई सहस्र वर्ष पहले जैन धर्म के जीवन का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। उत्तर भारत में यहां के तपस्वी आचार्य सूर्य की तरह तप रहे थे। यहां की स्थापत्य और भास्कर कला के उत्कृष्ट शिल्पों को देखकर दिग्दिगन्त के यात्री दांतो तले उंगली दबाते थे । यहां के श्रावक और श्राविकाओं की धार्मिक श्रद्धा अनुपम थी । अपने पूज्य गुरुओं के चरणों में धर्मभीरु भक्त लोग सर्वस्व अर्पण करके नाना भांति की शिल्पकला के द्वारा अपनी अध्यात्म साधना का परितोष करते थे । अन्त में यहाँ के स्वाध्यायशील भिक्षु और भिक्षुणियोंद्वारा संगठित जो अनेक विद्यापीठ थे उनकी कीर्ति भी देश के कोने कोने में फैल रही थी। उन विद्यास्थानों को गण कहते थे, जिन में कई कुल और शाखाओं का विस्तार था। इन गण और शाखाओं का विस्तृत इतिहास जैन--ग्रन्थ कल्पसूत्र तथा मथुरा के शिलालेखों से प्राप्त होता है । अब हम कुछ विशदता से जैन धर्म के इस अतीत गौरव का यहां उल्लेख करेंगे। देवनिर्मित स्तूप • कंकाली टीले की भूमि पर एक प्राचीन जैन स्तूप और दो मन्दिर या प्रासादों के चिह्न मिले थे । अर्हत नन्द्यावर्त अर्थात् अठारहवें तीर्थंकर अर की एक प्रतिमा की चौकी पर खुदे हुए एक लेख में लिखा है [E. I. Vol. II, Ins. no. 20] कि कोट्टिय गण की वज्री शाखा के वाचक आर्य वृद्धहस्ती की प्रेरणा से एक श्राविका ने देवनिर्मित स्तूप में अर्हत् की प्रतिमा स्थापित की। यह लेख सं. ७९ अर्थात् कुषाण सम्राट् वासुदेव के राज्यकाल ई० १६७ का है, परन्तु इसका देवनिर्मित शब्द महत्त्वपूर्ण है; जिस पर विचार करते हुए बूलर स्मिथ आदि विद्वानों ने [ Jain stupa, P. 18] निश्चय किया है कि यह स्तूप ईस्वी० दूसरि शताब्दि में इतना प्राचीन समझा जाता था कि लोग इसके वास्तविक निर्माणकर्ताओं के इतिहास को भूल चुके थे और परम्परा के द्वारा इसे देवों से बना हुआ मानते थे । इस स्तूप का नाम बौद्ध स्तूप लिखा हुआ है। हमारी सम्मति में देवनिर्मित शब्द साभिप्राय है और इस स्तूप की अतिशय प्राचीनता को सिद्ध करता है । तिब्बतीय विद्वान् तारानाथ ने अशोककालीन तक्षकों और शिल्पियों को यक्षों के नाम से पुकारा है और लिखा है कि मौर्यकालीन शिल्पकला यक्षकला है। उससे पूर्व युग की कला देवनिर्मित थी। अतएव .: ९२. . [ श्री आत्मारामजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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