SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणाकरसूरिकृत श्रावकविधिरास ॥ वस्तु ॥ अर रि संभलि अररि, संभलि दव सचित्त, विगइ तह वाणहीय, वत्थ कुसुम तंबोल वाहण; सयण सरीर विलेवणह, बंभचेर दिसि न्हाण भोयण; ए जो जाणइ चउदपय, नितु नितु करइ प्रमाण, सो नर निश्चइ पामिस्यइ, देवह तणउ विमाण ! ॥८ ॥ ॥ भास ॥ सयरह ए सोच करेवि, धोअति पहरवि निरमलीय; पूजइ ए भाव धरेवि, धरि देवालइ देव जिण. ॥९॥ गंधिहि ए धूविहि, सारअरकहिं फुल्लिहिं दीव इम; नेवज ए फल जल सार, अट्ठपयारी पूज इम. ॥१०॥ देवह ए तणउ जे देव, पूजउ जाइवि जिणभवणि, निम्मल ए अकल अभेय, अजर अमर अरिहंत पहो ॥११॥ एकहि ए मोख तुरंत, राग दोस वे जो जिणइं ए, रयणिहि ए तिहि सोहंत, नाणिहिं दंसणिहिं चारितिहिं. ॥ १२ ॥ मेलवि ए च्यारि कसाय, पंच महव्वय भार धरो; छव्विह ए जीव-निकाय, सदय अभय जो नितु चवई ए. ॥ १३ ॥ अठहिं ए मदिहिं विमुक्त, बंभगुत्ति नव साचवई ए; आलसि ए खणवि न ढुक्क, दसविह धम्मसमुद्धरण. जाइंवि ए पोसह-साल, एरिस सुह गुरु वंदियई ए; माणस ए निकर सियाल, जाह न धम्म न देव गुरु. अरकई ए सुहगुरु धम्म, सावधान धांमी सुणउ ए; धम्मह ए मूल मरम्म, जीवदया जं पालीयई ए. झूठह ए नवि बोलेहु, आल दीयंतउ अलसू ए; देखवि ए मानु लेहु, परधन तृण जिम मन्नियइं ए. [श्री आत्मारामजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy