SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 364
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हँसते हँसते उत्तर दिया | पंन्यास श्री ललितविजयजी 44 यह सामने की दूकानें किस की हैं ? " 44 $5 यह हैं तो मेरी ही ! कहिए, क्या इन्हें खरीदना है ? लालाजी ने 66 'हाँ, खरीदना है तभी तो पूछते हैं । " वर्तमान आचार्यदेव ने कहा । 66 'दाम इनका बहुत है, आप दे न सकेंगे !" "नहीं, नहीं, ऐसा न कहो, मैं जहां तक समझता हूं, दाम चुका सकता हूं !" " कहिए तो सही ! लंगोटी में कितने दमड़े हैं, जिनसे दाम चुकायेंगे ?" लालाजी का पूछना था । " भाई ! यहां तो धरा ही क्या है ? हमारे पास तो धर्मलाभ है, क्या यह कम मूल्य है ?" वर्तमान आचार्यदेव ने कहा । " तो भले, इन दुकानों की जमीन को मैं आचार्यदेव के चरणों में अर्पित कर रहा हूं, जो चाहें सो करें । " लालाजी ने प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा दे दी । शताब्दिनायकः आचार्यदेव स्वर्गवासी हो गए। कुछ वर्षों बाद वर्त्तमान आचार्यदेव समुनिवृन्द लुधियाना पहुँचे | सारे नगर में जुलूस बड़े उत्साह से निकला, सहस्रों आदमी उसमें सम्मिलित हुए । लुधियाना का हृदय खुल गया था । सब लोग इस जुलूस में थे, किन्तु लाला रामदित्तामल का कहीं पता तक न था । Jain Education International वर्तमान आचार्यदेव उपाश्रय में पधारे। लगभग ३ बजे दिन को लालाजी आए, नमस्कार करने को झुके और कुछ कह भी न पाये थे कि हिम्मत का बांध टूट गया " हा ! आत्मारामजी !" मात्र कह सके। फूट फूट कर रोने लगे । उनका रोना देख उपाश्रय की दीवालें तक रो उठीं । फिर किसी तरह उन्हें सान्त्वना देकर गुरुदेव ने शान्त किया। यह सम्वत् १९५६ की बात है (यह घटना भी मेरी देखी हुई है) । मंदिर बनकर तय्यार हुआ, प्रतिष्ठा में भी आप को बुलाया गया। उस समय उनसे कहा गया " यदि आप कुछ चाहें तो दे सकते हैं ! " 66 जो कुछ 'खर्च हो, उसका चौथाई मेरा । पचास हज़ार, लाख जो कुछ क्यों न हो । उसका चौथाई मेरा माना जाय । " लालाजी ने उत्तर दिया, सब स्तब्ध थे । शताब्दि ग्रंथ ] : ६५ : For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy