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________________ MAHINI (ले०-५० ललितविजयजी ) मानवजाति आरंभ से आजतक न जाने किन किन दशाओं का अतिक्रम करती हुई इस दशा को पहुँची है. फिर भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि इस के लिये समय २ पर कुछ लोगों ने दीप-स्तंभ बनकर इसे आगे बढ़ाया है, इस की रक्षा की है और अज्ञात अज्ञानगर्त में पतित होने से बचाकर इसे एक सुन्दर मार्ग पर लगाया है । यदि वास्तविक रूपेण देखा जाय तो इस पृथ्वी के मेरुदण्ड वे ही हैं। हमारे और संपूर्ण विश्व में चमकनेवाले ज्ञानरूप प्राण उन्हीं महात्माओं से हमें प्राप्त हुए हैं। उनका सुयशज्ञान, उनका संस्मरण, उनकी यादगार आजतक हमारे पथप्रदर्शक हैं । धन्य हैं वे महात्मागण! __ श्री आत्मानंद शताब्दि महोत्सव के संचालक मेरे परमपूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजयवल्लभसूरीश्वरजी महाराज तथा अन्य महानुभावों की आज्ञा तथा प्रेरणा है कि मैं भी उक्त अवसर पर प्रकाशित होनेवाले ग्रन्थ के लिये स्वर्गस्थ श्री गुरुदेव के पंजाब के संस्मरण लिरवू । महात्माओं के संस्मरण लिखना, उनकी संपूर्ण बातों का विस्तृत रूप से परिचय प्राप्त कराना, एक प्रकार से अत्यन्त कठिन है, फिर भी इन तुच्छ कंधों पर जो भार डाला गया है उसका वहन करना, जो कुछ थोड़े बहुत संस्मरण ज्ञात हैं, उन्हें आप के सम्मुख रखना मेरा परम कर्त्तव्य है । ये बातें केवल बातें ही नहीं, हमारे भावी जीवन के लिये भी उपयोगी-सहायकारक हैं। चिरकाल तक जैन समाज के गौरव को बढ़ानेवाली हैं, साथ ही भावी समाज के लिये भी मार्गदर्शक हैं। श्री गुरुदेव के पंजाब के संस्मरण लिखने के पूर्व यह आवश्यक है कि इस आर्य संस्कृति की केन्द्र वीरप्रसू जगद्विख्यात भूमि की कुछ प्राचीन बातों पर भी प्रकाश डाला जाय । [श्री आत्मारामजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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